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होते है वे उसके आत्मबल की कमी के कारण होते हैं। अतः उसे आत्मबल की कमी के अनुपात में फल ग्रहण करना पड़ता है – तब उपचार से कहा जाता है कि 'कर्म ने फल दिया। दूसरी ओर, जब ऐसा जीव आत्मानुभवनरूपी पुरुशार्थ के बार-बार प्रयोग से अपनी भाक्ति बढ़ा लेता है, तब बहिरंग में तो यह अणुव्रत/महाव्रतरूप आचरण को अंगीकार करता है और अन्तरंग में इसकी अप्रत्याख्यानावरण कशाय का संक्रमण होकर प्रत्याख्यानावरण कशायरूप उदय रह जाता है (अथवा, अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण, दोनों कशायों का संक्रमण होकर संज्वलन कशायरूप उदय रह जाता है) - क्योंकि इसने अब इतना आत्मबल संचित कर लिया है कि वह तद्रूप फल नहीं लेता। इस प्रकार, यह जीव एकदे तः स्वतन्त्र है।
६ २.१६ जीव का सम्यक् पुरुषार्थ और मोहनीयकर्म
की विपाकशक्ति – दोनों के बीच चलने
वाली सतत रस्साकशी कर्मोदय से यह जीव कितना प्रभावित होता है या नहीं होता
— मोक्षमार्ग के सन्दर्भ में यह कर्म के हाथ में न होकर, मुख्यतः जीव के आत्मबल पर निर्भर करता है। प्रवचनसार के टीकाकार जयसेनाचार्य ने लिखा है – 'द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति' अर्थात् द्रव्यमोह का उदय होने पर भी यदि शुद्धात्म भावना के बल से जीव भावमोहरूप परिणमन नहीं करता तो बन्ध नहीं होता।
[ गाथा ४५ (पुण्णफला अरहता...), तात्पर्यवृत्ति टीका]