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के अनुरूप, जितना फल लेते हैं, उतना 'उदय' कहलाता है और शेष का "उदयाभावी क्षय' कहलाता है। दूसरी ओर, यदि हम संक्लेशमय परिणाम करते हैं, तो जितना उदीयमान कर्म है, चूँकि हम उसके अनुपात से भी ज़्यादा कषाय, अपने अंतरंग रुझान के वश, कर डालते हैं, इसलिये आगामीकाल में उदय में आने वाले जो कर्म-निषेक थे, उनका भी समयपूर्व उदय हो जाता है - अर्थात् उनकी 'उदीरणा' हो जाती है।
इस प्रकार, यह हम पर ही निर्भर करता है कि हम कितना फल लेते हैं – कम या ज़्यादा।
$ २.१८ कर्मोंसे बँधे जीव की
एकदे । स्वतंत्रता ऊपर की चर्चा के अनंतर, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि 'क्या ऐसा सम्भव नहीं है कि जीव बिल्कुल भी कषाय न करे, अर्थात् मोहनीय कर्म के उदय का बिल्कुल भी फल न ले?' इसका उत्तर है कि इसके लिये सम्पूर्ण आत्म शक्ति की आव यकता है; जबकि वस्तुस्थिति यह है कि हममें वर्तमान में जितनी आत्म शक्ति है, हम उसे भी पूरी तरह चेतना में नहीं लगाते। यदि सही पुरुषार्थ करते हुए पूरी तरह लगा भी दें, तो भी उतना ही 'उदयाभावी क्षय' होगा जितना कि वर्तमान गुणस्थान के अनुसार सम्भव है। किसी साधक द्वारा पुरुषार्थ की वि श प्रबलता से यदि उससे भी अधिक आत्म क्ति लगाई जाती है तो उसका गणस्थान परिवर्तन भी हो सकता
है।
चौथे गुणस्थान वाले जीव की जितनी आत्म शक्ति होती है, वह उतनी ही लगा सकता है। वहाँ पर जो राग-द्वेशादि