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तूने अपने परिणामों से ही इन कर्मों को बाँधा है और अपने परिणामों से ही तू इनसे मुक्त हो सकता है।' अतएव करणानुयोग भी हमें संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव की मूलभूत स्वतंत्रता की उद्घोषणा करता हुआ ही दिखाई देता है।
इस प्रकार, दोनों अनुयोगों का एक ही अभिप्राय है। यदि यह जीव पूर्णरूप से स्वतन्त्र नहीं है तो इसका एकमात्र कारण इसके आत्मबल की कमी है; कर्मरूपी निमित्त का उसमें कोई दोश नहीं है। आत्मबल घटाना या बढ़ाना इस जीव के अपने हाथ में है, यदि यह चाहे तो पुरुशार्थपूर्वक आत्मबल बढ़ा सकता है। यद्यपि यह बात सत्य है कि आत्मबल जीव के गुणस्थानों के अनुसार क्रम-क्रम से ही बढ़ता है, तथापि यह भी सत्य है कि यदि यह जीव आत्मबल को बढ़ाने का सही पुरुशार्थ नहीं करता तो उसके लिये यह स्वयं उत्तरदायी है।
$ २.२३ कारण और साधन में मौलिक अन्तर; एवं व्यवहार रत्नत्रय का साधनत्व/निमित्तत्व
शरीर के साथ मिथ्या - एकानुभूति के अनादिकालीन संस्कार को तोड़ने के लिये जिस विरोधी संस्कार की आवश्यकता पड़ती है, उसी का नाम स्वानुभवन है, और वही निर्जरा का कारण है । ध्यान देने योग्य है कि कारण और साधन की परिभाषाओं में, अवधारणाओं में मूलभूत अन्तर है। कारण उसे कहते हैं जिसके सद्भाव में विवक्षित कार्य का निष्पन्न होना निश्चित हो तथा जिसके अभाव में वह कार्य उत्पन्न न हो सके । जैसे, सम्यग्दर्शन–ज्ञान—चारित्र की सम्पूर्णता मोक्षरूपी कार्य का कारण है। इस प्रकार, हम पाते हैं कि 'कारण' वस्तुतः और कुछ नहीं, अपितु उपादान की परिणति - विशेष ही है वह
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