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निजस्वभाव का दर्शन करता है, प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है जिस प्रकार कि आगे बढ़ने पर किसी कक्ष का स्वचालित (automatic ) द्वार स्वयमेव खुल जाता है, परन्तु आगे न बढ़ने पर वह द्वार बंद पड़ा रहता है, ठीक इसी प्रकार से मिथ्यात्वकर्मरूपी द्वार का कार्य है; जो पुरुशार्थ के द्वारा आगे बढ़ता है, उसे मार्ग मिल जाता है।
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$ २.२२ अध्यात्म और करणानुयोग की कथनशैलियाँ प्रत्युत एक-दूसरे की सम्पूरक
अध्यात्मशास्त्र और "करणानुयोग करणानुयोग उपर्युक्त विषय को अलग-अलग दृष्टिकोणों से प्रस्तुत करते दिखाई पड़ते हैं। जीव के कषायरूप परिणमन का कारण अध्यात्मदृष्टि से जहाँ उसके आत्मबल की कमी को माना जाएगा, वहीं करणानुयोग की कथनशैली कदाचित् कर्मोदय की प्रबलता को उत्तरदायी ठहराती प्रतीत होती है । दृष्टिकोण अलग-अलग होते हुए भी अभिप्राय दोनों अनुयोगों का एक ही है। अध्यात्मशास्त्रों में जो कथन किया गया है, वह साधक के बुद्धिगम्य परिणामों को, और उनकी संभाल रखने के लिये उत्तरदायी जो उसका बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ है, उसी को दृष्टि में रखकर किया गया है।
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साधक जीव के शुद्धात्मभावना-विषयक उत्साह को वृद्धिंगत करने के अभिप्राय से अध्यात्म शास्त्र चेतनाशक्तिसम्पन्न जीव के पुरुषार्थ की मूलभूत स्वतन्त्रता का दुन्दुभिघोष करते हैं
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परस्पर विरोधी नहीं,
जिससे कि साधक जितना पुरुषार्थ कर सकने में वर्तमान में समर्थ है उतना भरपूर करता रहे। दूसरी ओर, करणानुयोग भी हमें यही सम्बोधन देता हुआ प्रतीत होता है कि 'हे जीव !