________________
- तभी वे संस्कार टूटेंगे। (विपरीत संस्कारों के टूटने को ही आगमभाशा में निर्जरा कहा गया है)। जैसे, यदि कोई काँटा चुभ जाए तो उसे निकालने के लिये, सूई को काँटे की लम्बाई से भी ज्यादा गहराई में ले जाकर, उसे निकालना पड़ता है। वैसे ही, शरीर के प्रति एकत्वभाव के संस्कार को तोड़ने के लिये, उससे भिन्नत्व का संस्कार कहीं अधिक गहरा होना चाहिये। यदि निज चित्तवृत्ति का ईमानदारी से विश्लेषण करें तो पाएँगे कि चूँकि हम उतना पुरुषार्थ नहीं करते, इसी कारण हमारा पुराना संस्कार नहीं टूटता। ___ जब यह जीव शरीरादिक परपदार्थों को अपनेरूप देखता है, उस समय दो बातें एक-साथ होती हैं – (१) पूर्वसंचित अविद्यारूपी संस्कार व्यक्त होता है, अथवा दर्शनमोहनीय कर्म की उदयरूप अवस्था होती है; तथा (२) वही अविद्या-संस्कार फिर से मजबूत हो रहा होता है, अथवा मिथ्यात्वकर्म का नूतन बन्ध हो रहा होता है। दूसरी ओर, कदाचित् मन्द उदय की स्थिति में, जब यह जीव सम्यक उपदेश के अवलम्बपूर्वक अपने को शरीरादिक परपदार्थों से भिन्न, चेतनपदार्थरूप विचारने की, चितवन करने की चेष्टा करता है, तो अविद्यारूपी वह अनादिसंस्कार हलका होने लगता है। जब यह अपनी पूरी शक्ति लगाकर, भरसक चेष्टा करता है – सम्यक् तत्त्वचिंतवन में अपना पूरा उपयोग लगाता है - तो प्रायोग्यलब्धि को प्राप्त हो जाता है। उस तत्त्वचिंतवन के दौरान, वह अविद्यारूपी संस्कार अथवा मिथ्यात्वकर्म और ढीला पड़ने लगता है। उसके अनन्तर, जब यह जीव अपने को मात्र अपनेरूप देखने की ओर, निजसत्तावलोकन की ओर सम्यक् रूप से अग्रसर होता है, तो करणलब्धि को प्राप्त हो जाता है; यह जीव प्रथम बार