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विशिष्ट अंतरंग परिणति जो कि विवक्षित कार्यरूपी परिणाम को उत्पन्न करने में समर्थ हो।
दूसरी ओर, साधन अथवा निमित्त उसे कहते हैं जिसका अवलम्ब लेकर हम अपने उपादान के भीतर कारण-रूप निजपरिणति को जाग्रत कर सकें, और फिर, उस (कारण-रूप निजपरिणति) के फलस्वरूप विवक्षित कार्यरूप निजपरिणाम को प्राप्त कर सकें। जैसे, सुदेव-शास्त्र-गुरु मोक्षमार्ग के साधन अथवा निमित्त हैं। देवदर्शन, आगमाध्ययन, गुरूपदेश-श्रवण आदि के द्वारा हम अपने अन्तरंग में भेद-विज्ञान की रुचि जाग्रत कर सकते हैं, और भेद-विज्ञान की भावना को अपने अंतस् में प्रबलता से भाते हुए आत्म-सम्मुख होने पर, हम सम्यग्दर्शन-ज्ञान–चारित्ररूपी विवक्षित कार्य को, साध्यरूप निज परिणति को प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार यह सुस्पष्ट है कि देव-शास्त्र-गुरु मोक्षमार्ग के साधन हैं, कारण नहीं। यह भी ध्यान रखना चाहिये कि शास्त्रों में कईं स्थलों पर श्रोता-वि श की योग्यता आदि को दृष्टि में रखते हुए, प्रयोजनवश साधन-विशेष को मुख्य करते हुए, आचार्यों ने साधन को उपचार से कारण भी कहा है। देव-शास्त्र-गुरु वस्तुतः साधन भी उसी व्यक्ति के लिये हैं जो उनका अवलम्ब लेकर भेद-विज्ञान की रुचि जाग्रत करने का पुरुषार्थ करता है। इसीलिये, एक ओर तो जो (निश्चयावलम्बी) व्यक्ति इन्हें साधन भी नहीं मानता था, उसे आचार्यों ने इनके साधनत्व के बारे में भली-भाँति समझा कर, इनका अवलम्ब लेने का उपदेश दिया। तथा, दूसरी ओर, जो (व्यवहारावलम्बी) व्यक्ति इन्हें ही कारण मानकर रुक गया था, उसको आचार्यों ने इनमें कारणत्व का निषेध किन्तु साधनत्व की पुष्टि करते