________________ प्रवृत्तिमात्र का निषेध कहलाती है। शारीरिक क्रिया का नियमन, मौन धारण और संकल्प-विकल्प से जीवन का संरक्षण क्रमशः काय, वचन और मनोगुप्ति है। श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से श्रमणाचार में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्पराओं में पर्याप्त अन्तर दिखाई देता है। किन्तु गहराई से चिन्तन किया जाय तो प्रकारान्तर से शब्द परिवर्तनों के साथ प्रायः सभी परम्पराओं में सभी मूल तथ्य आ गये हैं। समिति, गुप्ति आदि को श्वेताम्बर परम्परा में मूल गुणों में स्थान न देकर उत्तरगुणों में स्थान दिया है। केश लुंचन आदि को स्वतन्त्र स्थान न देकर उसका समावेश कायक्लेश में किया गया है। आचेलक्य को दस कल्प में प्रथम कल्प माना है; पर मूलगुण नहीं। अस्नानता और अदन्तधावन ये दोनों के आचार में परिगणित हैं, किन्तु मूलगुण में नहीं। स्थितिभोजन श्वेताम्बर परम्परा में नहीं है। क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा में आहार स्वस्थान पर लाकर करने का विधान है। गृहस्थ के वहाँ खड़े रहकर भोजन का विधान नहीं है। एकभुक्त व्रत श्वेताम्बर परम्परा में भी प्राचीन काल में रहा था। किन्तु वर्तमान में वह नियम नहीं है। स्वेच्छा से जो श्रमण करना चाहे तो उसका महत्व अवश्य है। श्रमणाचार के अन्तर्गत अन्य निम्न आचार भी वर्णित हैं1. बारह तप अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेशये छह बाह्य तप हैं। आभ्यन्तर तप के प्रायश्चित्त विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान- ये छह भेद हैं। 2. समता, सामायिक 3. दश धर्म दश धर्म हैं- उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य एवं उत्तम ब्रह्मचर्य। 4. स्वाध्याय 1-वाचना, 2-पृच्छना, 3-अनुप्रेक्षा, 4-आम्नाय, 5-धर्मोपदेश 5. ध्यान ध्यान के चार भेद हैं--आर्त ,रौद्र , धर्म और शुक्ल ध्यान /