Book Title: Mokshmarg Triratna Samyag Gyan Darshan Charitra
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Premsuman Jain

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Page 1
________________ मोक्षमार्ग- त्रिरत्न : सम्यग्ग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन सर्म्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को ही प्रसिद्ध सूत्रकार उमास्वामी से मुक्ति का मार्ग बतलाया है। इन्हें त्रिरत्न और धर्म भी कहा गया है। असल में जो मुक्ति का मार्ग है- दुःखों और उनके कारणों से छूटने का उपाय है, वही तो धर्म है। उसी को हमें समझना है। दुःखों से स्थायी छुटकारा पाने के लिए सबसे प्रथम हमें यह दृढ़ श्रद्धान होना जरूरी है कि एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावो सब्बे संजोगलक्खणा || 102 || नियमसार ज्ञानदर्शनमय एक अविनाशी आत्मा ही मेरा है। शुभाशुभ कर्मों के संयोग से उत्पन्न हुए बाकी के सभी पदार्थ बाह्य हैं- मुझ से भिन्न हैं, मेरे नहीं है। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं -- 'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।। यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।। 3 ।। " रत्नकरंडश्रावकाचार अर्थात्-"धर्म के प्रवर्तक सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र को धर्म कहते हैं। जिनके उलटे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार के मार्ग हैं।" सात तत्व, पुण्य, पाप; एवं द्रव्य, गुण, पर्यायः का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। मूलतः दो तत्व हैं- जीव और अजीव। चेतनालक्षण जीव है और उससे भिन्न अजीव। आत्म-कल्याण के लिए सात तत्व या नव पदार्थ प्रयोजनीय हैं। इनके स्वरूप का वास्तविक निर्णय कर प्रतीति करना सम्यग्दर्शन है। मुक्ति के लिये सात तत्वों पर दृढ़ आस्था का होना सम्यग्दर्शन है और उनका ठीक-ठीक ज्ञान होना ही सम्यग्ज्ञान है। ये दोनों ही आगे बढ़ने की भूमिका हैं, इनके बिना मुक्ति के लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है। जिस जीव को इस प्रकार का दृढ़ श्रद्धान और ज्ञान हो जाता है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं अर्थात् उसकी दृष्टि ठीक मानी जाती है। अब यदि वह आगे बढ़ेगा तो धोखा नहीं खा सकेगा। जब तक मनुष्य की दृष्टि ठीक नहीं होती- उसे अपने हिताहित का ज्ञान नहीं होता तब तक वह अपने हितकर मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकता। अतः प्रारम्भ में ही उसकी दृष्टि का ठीक होना आवश्यक है। इसीलिये सम्यग्दर्शन को मोक्ष के मार्ग में कर्णधार बतलाया है। जैसे नाव को ठीक दिशा में ले जाना खेने वालों के हाथ में नहीं होता, किन्तु नाव के पीछे लगे हुए डॉड का संचालन मनुष्य के हाथ में होता है। वह उसे जिधर को घुमाता है उधर को ही नाव की गति हो जाती है। यही बात सम्यग्दर्शन के विषय में भी जानना चाहिये। इसी से जैन सिद्धान्त में सम्यग्दर्शन का बहुत महत्व बतलाया है। इसके हुए बिना न कोई ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है और न कोई चारित्र सम्यक् चरित्र कहलाता है। सम्यग्दर्शन के अंग जिस प्रकार मानवशरीर में दो पैर, दो हाथ, नितम्ब, पृष्ठ, उरस्थल और मस्तक- ये आठ अंग होते हैं और इन आठ अंगों से परिपूर्ण रहने पर ही मनुष्य काम करने में समर्थ होता है, इसी प्रकार अष्टांगयुक्त सम्यग्दर्शन का पालन करने से ही संसार-संतति का उन्मूलन होता है। इन आठ अंगों में वैयक्तिक उन्नति के लिए प्रारम्भिक चार अंग और समाज-सम्बन्धी उन्नति के लिए उपगूहनादि चार अंग आवश्यक हैं। 1-निःशंकित अंग-वीतराग-वचन पर दृढ़ आस्था रखना निःशंकित अंग है। 2-निःकांक्षित अंग- सांसारिक सुख की किसी प्रकार की आकांक्षा न करना निःकांक्षित अंग है। 3-निर्विचिकित्सा अंग- मुनिजन देह में स्थित होकर भी देह-सम्बन्धी वासना से अतीत होते है। अतः वे शरीर का संस्कार नहीं करते । उनके मलिन शरीर को देख ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा-अंग है। 4-अमूढदृष्टि अंग- सम्यग्दृष्टि की प्रत्येक प्रवृत्ति विवेकपूर्ण होती है। वह किसी का अन्धानुकरण नहीं करता। यह तो श्रदालु तो होता है, पर अन्ध श्रदालु नहीं। अमूढदृष्टि अन्ध श्रद्धा का पूर्ण त्याग करता है।

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