Book Title: Mokshmarg Triratna Samyag Gyan Darshan Charitra
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Premsuman Jain

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ 5-उपग्रहन अंग- अज्ञानी और अशक्त व्यक्तियों द्वारा रत्नत्रय और रत्नत्रय के धारक व्यक्तियों में आये हुए दोषों का प्रच्छादन करना उपगूहन अंग है। 6-स्थितीकरण अंग- साधर्मी बन्धु को धर्मश्रद्धा और आचरण से विचलित न होने देना तथा विचलित होते हुओं को धर्म में स्थित करना स्थितीकरण है। 7-वात्सल्य अंग- साधर्मी बन्धुओं के प्रति निश्छल और आन्तरिक स्नेह करना वात्सल्य है। इस गुण के कारण साधर्मी भाई निकट सम्पर्क में आते हैं और उनका संगठन दृढ़ होता है। 8-प्रभावना अंग- जगत में वीतराग-मार्ग का विस्तार करना, धर्म-सम्बन्धी भ्रम को दूर करना और धर्म की महत्ता स्थापित करना प्रभावना है।। भगवती आराधना में शिवार्य ने कहा है- समस्त दुःखों का नाश करने वाले सम्यक्त्व में प्रमाद मत करो, क्योंकि ज्ञानाचार, चारित्राचार, वीर्याचार और तपाचार का आधार सम्यग्दर्शन है। जैसे नगर में प्रवेश करने पर उपाय उसका द्वार है, वैसे ज्ञानादि में प्रवेश करने का द्वार समदर्शन हैं, जैसे ऑखें मुख की शोभा बढ़ाती हैं वैसे ही सम्यग्दर्शन से ज्ञानादि की शोभा है। जैसे वृक्ष की स्थिति का कारण उसकी जड़ है वैसे ही सम्यग्दर्शन ज्ञानादि की स्थिति का कारण है। __मुक्ति की साधना का मूल कारण सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन से ही आध्यात्मिक विकास प्रारम्भ होता है। यह स्वाभाविक है कि जब तक लक्ष्य शुद्ध नहीं होता और दृष्टि निर्दोष नहीं बनती तब तक प्राणी की सारी जानकारी और उसके आधार पर किया जाने वाला प्रयास निष्फल है अतः सम्यग्दर्शन मुक्ति का प्रथम सोपान है: - मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी| जब अन्तःकरण में सम्यग्दर्शन की ज्योति प्रकट होती है तब अनादिकालीन मिथ्यात्वरूपी घोर अन्धकार सहसा विलीन हो जाता है और समग्र तत्व अपने वास्तविक रूप से उद्भासित होने लगते हैं। सम्यग्दर्शन के प्रभाव से आत्मा के प्रति प्रगाढ़ रुचि उत्पन्न होती है। आत्मानुभूति एवं स्वसंवेदन का अनुभव होता है। जीवादि तत्वों के श्रद्धान द्वारा आध्यात्मिक जागृति ही सम्यग्दर्शन है। यह आत्म-साधना का प्रथम सोपान है। आध्यात्मिक जागृति के बिना सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नहीं हो सकते। इसके बिना कठोर तप निष्फल होते हैं। जो महत्त्व नगर के लिए द्वार का, मुंह के लिए चक्षु का और वृक्ष के लिए जड़ का है, वही महत्त्व ज्ञान और चारित्र के लिए सम्यक् दर्शन का है। आध्यात्मिक जागृति से जीव में कई विषेषताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। वह निर्भयी हो जाता है। भय, लज्जा और लोभ से प्रेरित होकर वह हिंसा को उचित नहीं कहता है। वह सांसारिक सुखों की आकांक्षारहित होता है। नैतिक और आध्यात्मिक गुणों के विकास में वह अपना सर्वस्व अर्पण कर देता है। उसके मन में सब जीवों के प्रति मैत्री, गुणीजनों में प्रषंसा का भाव और दुःखी जीवों के प्रति दया का भाव रहता है। सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान भी आत्मा का गुण है। वस्तुतः आत्मा का गुण तो ज्ञान है किन्तु वह सम्यक भी होता है और मिथ्या भी होता है। दर्शनशास्त्र में संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को मिथ्याज्ञान कहा है। सम्यग्दृष्टि का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। मिथ्यादृष्टि का ज्ञान यर्थाथ नहीं है। क्योंकि उसे वस्तुस्वरूप की यर्थाथ प्रतीति नहीं है। वह संसार के स्वरूप को उसके यथार्थरूप में नहीं जानता। जो ज्ञान हेय रूप में और उपादेय को उपादेय रूप में जानता है वही ज्ञान सच्चा है। मूलाचार में कहा है कि जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाये, जिससे मन की चचलता रुक जाये, जिससे आत्मा विशुद्ध हो, उसे ही जिनशासन में ज्ञान कहा है। जिससे राग से विरक्ति हो, कल्याणमार्ग में अनुराग हो और सब प्राणियों में मैत्रीभाव हो, उसे ही जिनशासन में ज्ञान कहा है। आत्मा व अन्य द्रव्यों के स्वरूप को संशय आदि रहित जानना सम्यगज्ञान है। पदार्थों को जान लेने मात्र से ज्ञान को सम्यगज्ञान नहीं कहा गया है। जिस ज्ञान का स्वभाव आत्मा में लीन होना होता है, वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। ज्ञान का स्वरूप एवं भेद जो जानता है वह ज्ञान है, जिसके द्वारा जाना जाए वह ज्ञान है अथवा जानने मात्र को ज्ञान कहते हैं। जो आत्मा है वह जानता है और जो जानता है वह आत्मा है। ज्ञान आत्मा का विशेष गुण है, यह आत्मा से पृथक उपलब्ध नहीं होता। जिस ज्ञान द्वारा प्रतिभासित पदार्थ यथार्थ उपलब्ध हो, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। वस्तुतः जिस-जिस रुप में जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं, उस-उस रुप में उनको जानना सम्यग्ज्ञान है। सम्यक्पद से संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय को निराकृति हो जाती है। अतः ये ज्ञान सम्यक् नहीं है। सम्यग्ज्ञान का संबंध आत्मोत्थान के साथ है। जिस ज्ञान का उपयोग

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5