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तथा संयमपूर्वक दैनिक क्रियाओं को करना पंच समिति का पालन है मन, वचन और काया की तीन वृत्तियों का संयम गुप्ति का पालन है ।
मुनि पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का पालन करता हुआ अन्तरंग एवं बाह्य तपों की भी साधना करता है। इन तपों के द्वारा मुनि निद्रा को जीतता है, ध्यान को दृढ़ करता है । शरीर के ममत्व को त्यागता है, सुख-दुःख में समभावी होता है, स्वाध्याय को बढ़ाता है तथा इन्द्रियों के विषयों के प्रति अनासक्त होता है। तपों के द्वारा विनीत होता हुआ दोषों का परिमार्जन करता है। ये तप मुनि को ध्यान और स्वाध्याय में अप्रमादी बनाते हैं।
श्रावकधर्म की अंतिम श्रेणी से मुनिधर्म प्रारम्भ होता है जिसमें आत्मबोध का पूर्ण विस्फोट होता है आत्मा एवं शरीर की भिन्नता का स्पष्ट अनुभव तथा निर्मल ज्ञान की प्राप्ति मुनिधर्म के लिए आवश्यक है। इस अवस्था में मुनि के आचरण से मूलभूत पांचों व्रतों की पूर्णता का बोध होता है। वह इतना अपरिग्रही एवं निरहंकारी हो जाता है कि आत्मकल्याण के मार्ग में नग्न विचरण कर सकता है। उसका दिगम्बरत्व इस बात का साक्षी होता है कि इस व्यक्ति ने अपनी सभी आवश्यकताएं जगत् पर छोड़ दी हैं। सुरक्षा के प्रति यह पूर्ण अभय है इसके द्वारा साधे जाने वाले व्रत महाव्रत कहलाते हैं क्योंकि वह उनकी पूर्णता के साथ उन्हें पालन करता है। उसकी अहिंसा प्राणिमात्र तक विकसित हो जाती है। वह जगत् के सत्य भेदविज्ञान को पहिचान लेता है। उसकी मौलिकता उसके व्यक्तित्व से झलकती है। उसकी समस्त षक्तियां आत्मध्यान को निर्मल करती हैं। तथा वह अपनी आत्मा के अतिरिक्त और किसी का स्वामी नहीं होता है ।
मुनि के इस स्वरूप को विकसित करने के लिए तथा उसकी सुरक्षा के लिए कुछ अन्य नियम भी हैं, जिनका महावीर के धर्म में विधान है। वह पांच समितियों का पालन करता है। तीन गुप्तियों से रक्षित होता है तथा बारह अनुप्रेक्षाओं में अपने चित्त का पोधन करता है। इनके गर्भित अर्थ को भी जानें ।
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समिति का प्राचीन अर्थ या शासन पर नियन्त्रण महावीर ने उसे आचरण पर नियन्त्रण के अर्थ में प्रयुक्त किया है। सावधानीपूर्वक अहिंसक पैली में गमन ईर्यासमिति है सम्प्रेषण का माध्यम भाषा पर नियमन भाषा समिति है एषणा समिति व्यर्थ की आकांक्षाओं और मूर्च्छा से बचाती है। लेन-देन का व्यवहार इतनी सावधानी से करना कि किसी जीव का घात न हो तो वह आदान निक्षेपण समिति है। तथा उत्सर्ग समिति प्रत्येक कार्य को उसके निष्चित एवं उपयुक्त स्थान पर करने की प्रेरणा देती है इससे सामाजिक पालीनता भी बनी रहती है।
गुप्तियों का कार्य कर्मों के आश्रवद्वारों पर नियन्त्रण रखना है । अतः प्रवृत्तियों के प्रति सावधान एवं अप्रमादी रहना मुनि के लिए अनिवार्य है तो आवष्यक भी।
मन, वचन, और काय की श्रावक गुहस्थ के लिए
अनुप्रेक्ष्या का अर्थ है पुनः पुनः तत्वज्ञान का अन्वेक्षण इससे योग के लिए अनासक्ति भावना का विकास होता है। क्षणभंगुरता, अशरण, संसारभ्रमण एकाकीपन, आत्मा एवं शरीर आदि की मिन्नता, अशुचिता, कर्मो के आश्रव, संवर, निर्जरा, लोकदर्शन, आत्ममार्ग की दुर्लभता एवं सच्चे धर्म के स्वरूप आदि का चिन्तन करते रहने से मुनि अपने को पहिचानने में सषक्त हो जाता है अतः उसे अपनी धार्मिक प्रवृत्ति में दृढ़ता व स्थिरता प्राप्त होती है। धर्म के स्वरूप को वह उपलब्ध करने का प्रयत्न करने लगता है।'
जैन साधु की चर्या की कठोरता साधु को जान बुझकर दुःखी करने के उद्देश्य से निर्धारित नहीं की गई है किन्तु उसे सावधान, कष्टसहिष्णु और सदा जागरूक रखने के लिए की गयी है। मुनि क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण, दंश - मशक, नागन्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शयया, आक्रोध, वध याचना आलाभ, रोग, तृण-स्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन बाईस परीषहों को सहन करता है। मुनि कष्ट आने पर सभी प्रकार के उपसर्गो को भी शान्तिपूर्वक सहता है उसके लिये शत्रु मित्र, महल- श्मशान, कंचन कांच, निन्दा स्तुति सब समान हैं यदि कोई उसकी पूजा करता है, तो उसे भी वह आशीर्वाद देता है और यदि कोई उसपर तलवार से वार करता है तो उसे भी वह आशीर्वाद देता है। उसे न किसी से राग होता है और न किसी से द्वेष वह राग-द्वेष को दूर करने के लिये ही साधु आचरण करता है। साधु या मुनि की आवश्यकताएँ अत्यन्त परिमित होती हैं।
मुनि - आचार या साधु आचार का पालन करने के लिये गुप्ति समिति, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र का पालन करना भी आवश्यक है। योगों का सम्यक् प्रकार से निग्रह करना गुप्ति है। गुप्ति का जीवन के निर्माण में बड़ा हाथ है, क्योंकि भावबन्धन से मुक्ति गुप्तियों के द्वारा ही प्राप्त होती है। गुप्त