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धर्म और अधर्म की यौक्तिक अपेक्षा
धर्म और अधर्म को मानने के दो मुख्य यौक्तिक आधार है:
1. गति - स्थिति निमित्तक द्रव्य
2. लोक - अलोक की विभाजक शक्ति
यह ज्ञात है कि प्रत्येक कार्य की निष्पति में कारणों की अपेक्षा रहती है। गति- स्थिति में उपादान कारण जीव और पुद्गल स्वयं है। जीव और पुद्गल पूरे लोक में हैं और वे गति करते हैं। गति में निमित्त एक ऐसे कारण की अपेक्षा है जो गति स्थिति में सहायक बन सके तथा संपूर्ण लोक में व्याप्त हो, स्वयं गतिशून्य हो। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ऐसे द्रव्य हैं जो समस्त लोक में व्याप्त है और जिनकी गतिक्रिया शून्य है। जिसमें जीव आदि षट्द्रव्य हैं वह लोक है, जहाँ केवल आकाश है वह अलोक है । अलोक में जीव और पुद्गल नहीं जा सकते क्योंकि वहाँ धर्म और अधर्म द्रव्य का अभाव है अतः धर्म और अधर्म द्रव्य लोक - अलोक के विभाजक बनते हैं। धर्म ओर अधर्म के अस्तित्व के कारण मुक्तात्मा लोक के अग्रभाग पर जाकर स्थिर हो जाती है क्योंकि गतिसहायक की अलोक में अनुपस्थिति है।
2.3 आकाशास्तिकाय
अस्तिकाय में तीसरा अस्तिकाय द्रव्य आकाशास्तिकाय है । आकाशास्तिकाय अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श, अरूप, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा अखण्ड द्रव्य है । द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य है, क्षेत्र की अपेक्षा लोक तथा अलोक प्रमाण है काल की अपेक्षा अतीत अनागत और वर्तमान तीनों में शाश्वत है। गुण की अपेक्षा अवगाहन गुण वाला है। हमारे चारों ओर जो भी खाली जगह दिखाई देती है, वही आकाश (Space) है। आकाश का उपकार है - धर्म, अधर्म, जीव और पुद्गल को अवगाह देना । धर्मास्तिकाय आदि को अवगाहन देने वाला लोकाकाश है, परंतु आकाश का अपना कोई आधार नहीं है । यह अनंत आकाश स्वप्रतिष्ठ है। धर्म और अधर्म तिलों में तैल की तरह सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करके रहते है । अन्य द्रव्य असंख्यात प्रदेशी है, परंतु आकाश अनंतप्रदेशी है। एक आकाश प्रदेश में इतनी अवगाहन शक्ति है कि वह आकाश प्रदेश एक धर्म द्रव्य का प्रदेश, एक अधर्म द्रव्य का प्रदेश, एक काल द्रव्य, संख्यात, असंख्यात एवं अनंत परमाणु को भी अवकाश दे सकता है।
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आकाश दो प्रकार का है लोकाकाश और अलोकाकाश। लोकाकाश में जीव, जीव के देश और जीव के प्रदेश है अजीव भी है अजीव के देश और अजीव के प्रदेश भी है। अजीव भी रूपी और अरूपी दोनों है। रूपी के स्कंध, स्कंध देश, स्कंध प्रदेश और परमाणु पुद्गल इस प्रकार चार भेद है। अलोकाकाश में न जीव है न अजीब हैं वह एक अजीव द्रव्य देश है, अगुरुलघु है तथा अनंत अगुरुलघु गुणों में संयुक्त है अनंत भाग कम सर्वाकाशरूप है।
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2.4 काल द्रव्य
काल चौथा अजीव द्रव्य है। प्रत्येक वस्तु का वर्णन जैसे द्रव्य, क्षेत्र, भाव की अपेक्षा किया जा सकता है इसी प्रकार काल की अपेक्षा भी किया जाता है काल में अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारण गुण और वर्तना हेतुत्व असाधारण गुण पाए जाते हैं। व्यय और उत्पाद रूप पर्यायें भी काल में बराबर होती रहती हैं।
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'काल' अस्तिकाय नहीं है। काल का केवल वर्तमान समय ही अस्तित्व में होता है भूत समय तो व्यतीत हो चुका है- नष्ट हो चुका है और अनागत (भविष्य) अनुत्पन्न है। वर्तमान समय 'एक' होता है, इसलिए इसका तिर्थक प्रचय नहीं होता, अर्थात काल 'अस्तिकाय नहीं है।
काल की वास्तविकता के विषय में जैनाचार्यों में परस्पर मतभेद रहा है। श्वेताम्बर - परम्परा में आचार्यों ने काल के दो भेद किये हैं: व्यवहारिक काल और नैश्चयिक काल । नैश्चयिक काल अन्य द्रव्यों के
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