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परिवर्तन का हेतु है। जीव पुद्गल आदि द्रव्यों में प्रत्येक समय में जो परिणामन होता रहता है- पर्याय बदलती रहती है, वह नैश्चयिक काल के निमित से है। दूसरे शब्दों मे नैश्चयिक काल को जीव व अजीव की पर्याय कहा गया है।
जो जिस द्रव्य की पर्याय है, वह उस द्रव्य के अर्न्तगत ही है; अतः जीव की पर्याय जीव है और अ जीव की पर्याय अजीव । इस प्रकार नैश्चयिक काल जीव भी है और अजीव भीहै। काल का निरूपण जब निश्चय नय की दृष्टि से होता है, तब वह 'नैश्चयिक काल' कहलाता है; अतः वास्तविक काल 'नैश्चयिक काल' ही माना गया है। दूसरी और काल का जब व्यवहार नये की दृष्टि से निरूपण होता है, तब वह 'व्यवहारिक काल कहलाता है। कुछ आचार्यों द्वारा व्यवहारिक काल को द्रव्य' कहा गया है। काल को व्यवहारिक – दृष्टि से 'द्रव्य मानने का कारण यह है कि काल के कुछ एक उपकार अथवा लक्षण व्यवहार में अत्यन्त उपयोगी हैं और जो 'उपकारक होता है द्रव्य कहा जा सकता है। जिन उपकारों के कारण काल 'द्रव्य' की कोटि में गिना जाता है, वे मुख्यतया पाँच हैं: वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व । 'वर्तना का अर्थ है - वर्तमान रहना- किसी भी पदार्थ के वर्तमान रहने का अर्थ यही है कि उसका अस्तित्व कुछ 'अवधि तक होता है। यह 'अवधि' शब्द का ही सूचक है। यद्यपि 'काल' किसी भी द्रव्य को अस्तित्व की अवस्थिति प्रदान नही करता फिर भी जिस अवधि तक पदार्थ रहता है, वह काल के उन सब क्षणों की सूचक हैं जिसमें पदार्थ का अस्तित्व बना रहता है। 'वर्तना' की तरह 'परिणमन' को भी 'काल' के बिना नही समझाया जा सकता । जब किसी पदार्थ में परिणमन होता है, तब स्वभाविक रूप के परिवर्तन की कालावधि का सूचन हमें होता है। 'क्रिया' में गति आदी का समावेश होता है । 'गति' का अर्थ है आकाश प्रदेशों में क्रमशः स्थान - परिवर्तन करना । अतः किसी भी पदार्थ की गति में स्थान परिवर्तन का विचार उसमें लगने वाले काल के साथ किया जाता है। इसी प्रकार अन्य क्रियाओ में भी समय का व्यय होता है । परत्व और अपरत्व अर्थात पहले 'आना' और 'बाद में होना' अथवा 'पुराना' और 'नया' ; ये विचार भी काल के बिना नहीं समझाये जा सकते । इस प्रकार व्यवहार में वर्तना आदि को समझने के लिए 'काल' को द्रव्य माना गया है।
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व्यवहारिक काल 'गणनात्मक' है। काल के सूक्ष्मतम अंश 'समय' मे लेकर पुद्गल - परिवर्तन तक के अनेक मान व्यहारिक काल के ही भेद हैं। सूर्य चन्द्र की गति के आधार से इनका माप किया जा सकता है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार विश्व के सब स्थानों में सूर्य चन्द्र की गति नहीं होती है। एक मर्यादित क्षेत्र जहाँ ये पुद्गल पिण्ड अवस्थित है को छोडकर शेष स्थानों में दिन रात्रि आदि काल मान नहीं होते । इसलिए यह माना गया है कि व्यवहारिक काल केवल समय क्षेत्र तक सीमित है।
कुछ अन्य आचार्यों की मान्यता के अनुसार नैश्चयिक काल वास्तविक द्रव्य है, जबकि व्यवहारिक काल नैश्चयिक काल की प्रर्याय रूप है। नैश्चयिक काल को द्रव्य मानने की अवधारणा सही प्रतीत होती है क्योंकि जीव और अजीव सर्व लोक में व्याप्त हैं और इस प्रकार इनकी पर्याय नैश्चयिक काल की अवस्थिति सर्वलोक से सिद्ध होती है । व्यवहारिक काल केवल 'समय क्षेत्र' तक सीमित होने से व्यवहारिक काल को द्रव्य मानने पर काल द्रव्य की अवस्थिति सर्व लोक में सिद्ध नहीं होती ।
दिगम्बर परम्परा में काल के विषय में जो प्रतिपादन किया गया है वह उक्त मन्तव्य से सर्वथा भिन्न प्रकार का है। दिगम्बर आचार्यों ने यद्वपि काल के दो भेद - नैश्चयिक और व्यवहारिक काल स्वीकार किए हैं, फिर भी इनकी परिभाषाएं भिन्न प्रकार से की हैं । सुप्रसिद्ध दिगम्बर आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवती ( ई 10वीं शताब्दी ) काल के विषय में लिखते हैं: जो द्रव्यों के परिवर्तन रूप परिणाम-रूप देखा जाता है, वह तो व्यवहारिक काल हैं और वर्तना लक्षण का धारक जो काल है वह नैश्चयिक काल है । जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में रत्नों की राशि के समान परस्पर भिन्न होकर एक
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