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विषय मूर्तिक एवं अमूर्तिक दोनों हैं। मति, श्रुतज्ञान का साधन मन है और इनका विषय समस्त द्रव्यों की कुछ पर्याय हैं। शुद्ध पुद्गल परमाणु द्रव्य में रूप आदि चतुष्टय अतीन्द्रिय है। 4) सप्रदेश - अप्रदेश
धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल बहुप्रदेशी हैं। कालाणु और द्रव्य दृष्टि से पुद्गल परमाणु बहु प्रदेशी नहीं हैं। जो क्षेत्र के परिमाण को बताते हैं, उसे प्रदेश कहते हैं। 5) एक रूप - अनेक रूप
धर्म, अधर्म और आकाश एक रूप हैं और इनके प्रदेशों का कभी विघटन नहीं होता है।संसारी जीव, पुद्गल एवं काल अनेक रूप हैं। 6) क्षेत्र अक्षेत्र
आकाश की अपेक्षा लोक क्षेत्र स्वरूप है। जीव, पुद्गल, धर्म, और अधर्म अक्षेत्र हैं। 7) क्रिया-अक्रिया
जीव और पुद्गल क्रियावान है, क्योंकि उनमें गति पायी जाती हैं। धर्म, अधर्म, आकश एंव काल अक्रिया अर्थात् क्रिया रहित हैं। इनकी अपेक्षा लोक भी क्रिया रहित है। 8) नित्य-अनित्य
धर्म, अधर्म, आकाश और निश्चय काल नित्य है। इनकी अपेक्षा लोक भी नित्य है। जीव और पुद्गल अनित्य है। व्यंजन पर्याय की अपेक्षा जीव पुद्गल अनित्य होने पर भी द्रव्य की अपेक्षा नित्य है, इसलिए विश्व नित्यानित्यात्मक है। 9) कारण-अकारण
पुद्गल, धर्म, अधर्म एवं काल ये द्रव्य कारण हैं, क्योंकि जीवों के उपकारक हैं। इनकी अपेक्षा लोक भी कारण स्वरूप है। जीव अकारण है क्योकि वह स्वतंत्र है। जीव चेतन स्वरूप, अखण्ड, स्वरूप, अमूर्तिक होने के कारण संसार का कारण नहीं हो सकता है। 10) कर्ता-अकर्ता
जीवकर्ता है। जो कर्ता होता हैं, वही भोक्ता होता है। जीव स्वयं अपने संसार का कर्ता होने पर भी समस्त जीवों का एवं समस्त अजीवों का कर्ता नहीं हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, काल एवं पुद्गल अकर्ता हैं। 11) सर्वगत - असर्वगत
आकाश सर्वगत हैं क्योंकि वह सर्वत्र हैं। धर्म, अधर्म, काल, जीव, पुद्गल सर्वगत नहीं है क्योंकि वे सर्वत्र नहीं पाये जाते हैं। इसकी अपेक्षा लोक असर्वगत है। केवल ज्ञान की अपेक्षा केवली भगवान् सर्वगत होने पर भी द्रव्य की अपेक्षा सर्वगत नहीं हैं। स्वात्मा में स्थित होने पर भी केवलज्ञान के माध्यम से लोक अलोक को जानते हैं इसलिए सर्वगत हैं। 12) प्रवेश-अप्रवेश
जीव, पुदेगल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल अपने द्रव्य स्वभाव छोड़कर अन्य के धर्म में प्रवेश नहीं करते हैं। एक के आकाश प्रदेश में छहों द्रव्य परस्पर अवगाहित होकर रहते हैं इसलिए लोक इसकी अपेक्षा प्रवेश युक्त है। एक दूसरे को अवगाहन देकर परस्पर प्रवेश होकर के अथवा मिलकर रहने पर भी अपने-अपने स्वभाव का त्याग नहीं करते हैं।
2.1 धर्मास्तिकाय
पांच अस्तिकाय में प्रथम धर्मास्तिकाय द्रव्य है। यह गतिसहायक द्रव्य है। धर्मास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य है, क्षेत्र की अपेक्षा लोक प्रमाण है, काल की अपेक्षा वह अतीत में था, वर्तमान में है और