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द्वयणुक आदि स्कंध पुद्गल की विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है। रस से रसान्तर और गंध से गंधान्तर विभाव गुण व्यंजन पर्याय है। पुद्गल का अविभागी परमाणु स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है और उस परमाणु में जो एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श गुण रहते हैं, वे पुद्गल की स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं।
__ अगुरूलघु गुण के विकार को स्वभाव पर्याय कहते हैं। इसके बारह भेद हैं छ: वृद्धि रूप और छ: हानि रूप यानि षड्गुण हानि-वृद्धि। अनन्त भाग वृद्धि, असंख्यात भाग वृद्धि, संख्यात भाग वृद्धि, संख्यात गुण वृद्धि, असंख्यात गुण वृद्धि, अनन्त गुण वृद्धि। इसी प्रकार छ: हानि हैं।
___ उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य की जैन अवधारणा विज्ञान से भी प्रमाणित है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन ने परिणमन के सिद्धान्त को सत्यापित करते हुए कहा कि ऊर्जा द्रव्य में और द्रव्य ऊर्जा में बदली जा सकती है। आइन्स्टीन से पूर्व वैज्ञानिक जगत में यह माना जाता था कि द्रव्य को ऊर्जा में या शक्ति को द्रव्य में नहीं बदला जा सकता। दोनों स्वतंत्र है। न्यूटन, गेलेलियो आदि ने ऊर्जा को भारहीन व पदार्थ से असंबद्ध माना था। किंतु आइन्स्टीन ने यह सिद्ध कर दिया कि पदार्थ और ऊर्जा मे कोई अन्तर नहीं हैं। द्रव्य और ऊर्जा भिन्न नहीं एक ही वस्तु के रूपान्तरण है। उत्पाद, व्यय और धौव्य का चक्र द्रव्य मात्र में प्राप्त होता है। स्थिति और परिणाम एक ही वस्तु के दो अंश हैं। द्रव्यगत सापेक्षता की सामंजस्यपूर्ण व्याख्या जैन दर्शन की अपनी विशेषता है। 1.6 द्रव्यों के उत्तरगुण
छह मूल द्रव्यों के उत्तर गुण निम्नलिखित है। 1) परिणामी - अपरिणामी
अ) परिणामी - यह लोक परिणमनशील स्वभाव वाला हैं। भिन्न रूप धारण करना अर्थात् व्यंजन पर्याय को परिणमन कहा गया है। जीव और पुद्गल परिणामी हैं। धर्मादिक द्रव्य में जीव पुद्गल की तरह अशुद्ध परिणमन नहीं होता इसलिए वे अपरिणामी है। अर्थ पर्याय की अपेक्षा सर्व जीवादि द्रव्य विजातीय परिणमन नहीं करने से अपरिणामी हैं। परन्तु अपने सजातीय परिणमन की अपेक्षा से सर्वद्रव्य परिणामी हैं। परिणमन स्वभाव होने के कारण प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समय में परिणमन करते रहते हैं। द्रव्यों का समूह ही लोक हैं। इसलिए द्रव्यों के परिणमन से लोक का परिणमन होता है। ब) अपरिणामी - जिस प्रकार लोक एक दृष्टि से परिणमनशील है, अन्य एक दृष्टि से अपरिणमनशील भी है। अन्य द्रव्य रूप परिणमन नहीं होने के कारण द्रव्य में रहने वाला
अपरिणामी स्वभाव है। 2) जीव- अजीव
जीव अर्थात् आत्मा चेतन स्वरूप है। चेतन जीव को छोड़कर अन्य धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल मे नहीं है क्योंकि वे अचेतन हैं। 3) मूर्त-अमूर्त
पुद्गल द्रव्य स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण रहने के कारण मूर्तिक हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, काल एवं जीव अमूर्तिक हैं। द्रव्यों मे यह मूर्त ओर अमूर्त का भेद स्वभाव से ही है, किसी निमित्त से किया हुआ नहीं है। जो इन्द्रियों से जाना जाय उसे मूर्त कहते हैं और जो इन्द्रियों के अगोचर हो उसे अमूर्त कहते हैं। कोई एक सूक्ष्म रूप स्कंध एवं परमाणु यद्यपि इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने में नहीं आते तथापि इन पुद्गलों में ऐसी शक्ति है कि यदि वे कालान्तर में स्थूलता को धारण करें तो इन्द्रिय के ग्रहण करने योग्य होते हैं। मन के