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________________ करती रहे तो इसे हम एक व्यक्ति के भलेपन का शोषण भी कह सकते हैं । इसे अनेकान्तवाद कहने की भूल हमें नहीं करनी चाहिए। * आज का युग Decision Makers का याने अन्तिम निर्णय लेनेवालों का युग है । हमारे व्यक्तिगत-कौटुम्बिक और सामाजिक क्षेत्र में तथा औद्योगिक क्षेत्र में भी कई बार तुरन्त निर्णय लेने के प्रसंग आते हैं। कई बार हमारे निर्णय गलत भी साबित होते हैं । तथापि अगर प्रगति करनी है तो अपने दृढ मतों का सहारा लेकर निर्णय लेना आवश्यक होता है । अनेकान्तवादी व्यक्ति अगर सारासार का विचार करते हुए कालहरण करें तो सामने आया हुआ अवसर भी वह खो सकता है । जो तय किया है, उसका दृढता से अनुपालन भी करना पडता है । सारांश, कभी-कभी निर्णयशक्ति के ऊपर अनेकान्तवाद का विरोधी प्रभाव भी पड सकता है । कई तरीकों से हम दूसरों के मत जान सकते हैं, उसका सम्मान भी कर सकते हैं लेकिन प्रत्यक्ष कृति की बात जब आती है तब एकही निर्णय लेना पडता है । * वस्तुत: अनेकान्तवाद एक वैचारिक शैली है । लेकिन अनेक जैन और जैनेतर लेखकों ने इसे एक वाद या 'ism' की तरह प्रस्तुत किया है । जैसे कि जैन कहते हैं, 'सांख्य-वैशेषिक-जैमिनीय-वेदान्त आदि केवल नय या नयाभास है, सिर्फ अनेकान्तवाद ही परिपूर्ण दर्शन है ।' सहिष्णु जीवनदर्शिता को अगर एक वाद के स्वरूप में स्वीकारा जाय तो, ‘अनेकान्तस्य अपि अनेकान्त:' इस न्याय से वह भी आंशिक सत्य ही हो जायेगा । यही उसकी मर्यादा है । * अल्बर्ट आईनस्टाईन की 'Theory of Relativity' और जैनों का 'अनेकान्तवाद' इनका निकटका सम्बन्ध कई विचारवन्तोंने अधोरेखित करने का प्रयास किया है । तथापि यह बात भी मननीय है कि विज्ञान के क्षेत्र में अब सापेक्षतावाद अकाट्य सिद्धान्त के स्वरूप में नहीं स्वीकारा जाता । इसी वजह से अनेकान्तवाद को भी एकमेव अन्तिमत: सत्य सिद्धान्त के स्वरूप में नहीं माना जा सकता । * अन्त में एक बात भी विशेष कथनीय है कि मुख्यतः अध्यात्मलक्षी तत्त्वज्ञान को समाजाभिमुख बनाने का प्रयास जैन वातावरण में अनेकान्तवाद ने किया है । इसी वजह से पं. सुखलालजी भी कहते हैं कि, “जैनियों को चाहिए कि वे 'आप्तमीमांसा' और 'सन्मतितर्क' के बजाय 'समाजमीमांसा' एवं 'समाजतर्क' की ओर अभिमुख हो जाय ।” अहिंसा तत्त्व को सामाजिक रूप में परिणत करने का श्रेय वे महात्मा गांधीजी को देते हैं । कहते भी हैं कि, “यद्यपि अहिंसा तत्त्व जैनियों का है तथापि 'उसका सामाजिक क्षेत्र में उपयोजन करना'-यह महात्मा गांधीजी की जैन समाज को ही देन है।"
SR No.212296
Book TitleAadhunik kal me Ahimsa Tattva ke Upyojan ki Maryadaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaumudi Baldota
PublisherKaumudi Baldota
Publication Year2013
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size130 KB
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