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कम और मतभेद अतिशय तीव्रता से सामने आ रहे हैं । अनेकान्तवाद और अहिंसा की चर्चा बहुत सारे जैन और जैनेतर ग्रन्थों में भी रही हैं । प्रवचन-उपदेश या सत्संगों का वह लोकप्रिय विषय है । लेकिन वैयक्तिक अहंगण्ड एवं जातीय-प्रान्तीय-धार्मिक अस्मिताएँ अनेकान्तवाद के उपयोजन में नयी नयी समस्याएँ खडी कर रही हैं । इसलिए मूल स्वरूप में सामर्थ्यशाली होनेवाला यह तत्त्व याने उदारमतवाद अब हतप्रभ सा हो गया है । कुछ मामलों में तात्कालिक स्वरूप में शान्ततापूर्ण सामाजिक आन्दोलन दिखायी दे रहे हैं । अनेकविध प्रश्न सुलझाने के लिए यह तरीका सफल हो जाय तो हम कह सकते हैं कि इस तत्त्व में कुछ जान अभी बाकी है।
* पं. सुखलालजी संघवी जैसे विद्वान अभ्यासक एक अलग तरीके से अनेकान्तवाद की मर्यादाएँ स्पष्ट करते हैं - एक जवान (युवक) किसी जैन धर्मगुरु से पूछता है कि आपके पास जब समाधानकारी अनेकान्त-दृष्टि और अहिंसा तत्त्व मौजूद हैं तब आप लोग आपस में ही गैरों की तरह बात-बात में क्यों टकराते हैं ? मन्दिर के लिए, तीर्थ के लिए, धार्मिक प्रथाओं के लिए, सामाजिक रीतिरिवाजों के लिए - यहाँ तक की वेश रखना तो कैसा रखना, हाथ में क्या पकडना, कैसे पकडना इत्यादि बालसुलभ बातों के लिए आप लोंग क्यों आपस में लडते हैं ? क्या आपका अनेकान्तवाद ऐसे विषयों में कोई मार्ग निकाल नहीं
सकता ?
“समग्र विश्व के साथ जैन धर्म का असली मेल कितना और किस प्रकार का हो सकता है ?"सुखलालजी के इस प्रश्न में ही अहिंसा और अनेकान्तवाद की मर्यादा स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित है ।
* जैन परम्परा एक स्वतन्त्र दार्शनिक परम्परा है । द्रव्य एवं तत्त्वों का उसका अपना एक अलग ढाँचा है । उसी के आधारपर पूरे जैन तत्त्वज्ञान एवं आचार का प्रासाद खडा है । अनेकान्तवाद भी इसी तत्त्वज्ञान के आधार से प्रस्फुटित हो गया है । जैन दर्शन के मूल तात्त्विक विचारधाराओं को हमें मूल गृहीतकों के स्वरूप में मानना ही पड़ता है । 'वे तत्त्व एक दृष्टि से हैं भी और नहीं भी'-इस तरह प्रस्तुत नहीं किये जा सकते । सूत्रकृतांग के पाँचवें अध्ययन में स्पष्टता से कहा है कि, 'आत्मा-अस्तिकायआस्रव-संवर-मोक्ष आदि सब हैं ही' -इस स्वरूप में स्वीकार करें । किसी भी परिस्थिति में, 'ये नहीं हैं'ऐसा नहीं माना जा सकता । अनेकान्तवाद की गृहीतकों के बारे में होने वाली मर्यादा सूत्रकृतांग ने निस:देह रूप में प्रकट की है।
___ * एकत्र कुटुम्बपद्धति भारत की विशेषता मानी जाती है । अनेकान्तवाद के उदाहरण के तौरपर वह प्रस्तुत की जा सकती है । लेकिन गहराई तक जाये तो यह मालूम होता है कि प्राय: वह कुटुम्ब के विशिष्ट व्यक्ति के त्यागपर आधारित है । जब कुटुम्ब के अन्य व्यक्ति आपमतलबी हो और एक ही व्यक्ति त्याग