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सारांश रूप में हम यह कह सकते हैं कि देश-क्षेत्र की विशेषता, विविध पर्यायों की उपलब्धता, वैयक्तिक रुचिभिन्नता, धार्मिक-सांस्कृतिक एवं भावनिक मान्यता आदि अनेक दृष्टिकोणों के आधार पर, 'व्यक्ति का शाकाहारी या मांसाहारी होना'-तय होता है । व्यक्ति के शाकाहार या मांसाहार को देखकर, उसे 'हिंसक' या ‘अहिंसक' कहना, कोई तार्किक अनिवार्यता नहीं है ।
(३) वैचारिक अहिंसा अर्थात् अनेकान्तवाद :
मल जैन धर्मग्रन्थों में बीजरूप से दिखायी देनेवाला अनेकान्तवाद उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थकारों ने धीरे-धीरे अच्छी तरह से पल्लवित और पुष्पित किया । पाँचवी-छठी शताब्दी के बाद जैन नैयायिकों ने अनेकान्तवाद से निष्पन्न स्याद्वाद और नयवाद का उपयोजन अन्य दार्शनिकों के खण्डन के लिए एक पद्धतिशास्त्र के रूप में प्रस्तुत किया । लेकिन प्रस्तुत शोधलेख का विषय ध्यान में रखते हुए, यहाँ अनेकान्तवाद की मीमांसा वैचारिक अहिंसा और सहिष्णुता के तौर पर ही प्रस्तुत की है। उसका न्यायशास्त्रगत विस्तार यहाँ ध्यान में नहीं रखा है।
अनेकान्तवाद के प्रस्तुतीकरण की पद्धति निम्न प्रकार से दी जाती है -
जगत् की कौनसी भी वस्तु-व्यक्ति और घटना मूलत: अनन्तधर्मात्मक होती है । उसके प्रति देखनेवाले की दृष्टियाँ भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव आदि रूप से अलग-अलग होती हैं । इसलिए व्यक्ति को 'सत्' का पूरा दर्शन कभी नहीं हो पाता । उसका जितना भी ज्ञान और आकलन है वह आंशिक होता है । विशिष्ट दृष्टि से ही सत्य होता है । इसलिए हर-एक व्यक्ति ने अपने अंशात्मक ज्ञान को पूर्ण ज्ञान नहीं समझना चाहिए । दूसरों के मतों का आदर करना चाहिए । इस प्रकार वैचारिक उदारता रखे हुए हम विश्वशान्ति की ओर अग्रेसर हो सकते हैं ।
अनेक जैन और जैनेतर आचार्यों ने इस सिद्धान्त को वैचारिक अहिंसा भी कहा है । यद्यपि सिद्धान्त रूप से अनेकान्तवाद सराहनीय है तथापि निम्नलिखित चिकित्सा में उसकी मर्यादाएँ भी ध्यान में आती हैं -
* भारत के सामाजिक क्षेत्र में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कुछ विशेष ही उलथपुलथ हो रही है । जातिवर्णविरहित समाज की समता के आधारपर रचना करना, भारतीय संविधान का ध्येय है । तथापि सामाजिक समता के निर्माण के लिए कुछ जाति-उपजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की है । नतीजा यह हुआ है कि यह बात जातीय अस्मिताओं को बढावा दे रही है । दूसरी ओर, व्होटबँक के रूप में जातीय अस्मिताएँ जीवित रखी जा रही हैं । यही बात पक्षीय अस्मिता एवं धार्मिक अस्मिताओं के बारे में भी कही जा सकती है । चाहे प्रत्यक्ष वादविवाद हो, वृत्तपत्र हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हो, समन्वयवाद बहुत ही