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२) कई भौगोलिक परिस्थितियाँ ऐसी है कि वहाँ मांसाहार के सिवाय दूसरा इलाज ही नहीं है । ३) जगत् की कई संस्कृतियों ने सांस्कृतिक टॅबू निर्माण करके विशिष्ट-विशिष्ट प्राणियों का मांस
भक्षण करना, हेरिटेज या परम्परा का अनिवार्य भाग माना है । ४) कई सामुद्री तटों के रहिवासियों के - चावल और मछली, ये दोनों नित्य आहार के घटक हैं । ५) मानव-जाति के संस्कृति के इतिहास में बताया जाता है कि मनुष्यप्राणी प्रथम शिकार करने लगा
और बाद में खेती । इससे सिद्ध होता है कि मांसाहार एक दृष्टि से नैसर्गिक भी है । ६) पूरे विश्व में कई जगहें ऐसी भी हैं जहाँ जमीन ऊपजाऊँ नहीं है । अत: जीने के लिए उन्हें
मांसाहार का सहारा लेना ही पड़ता है । ७) आहारशास्त्र की दृष्टि से उचित प्रोटीन्स, विटामिन्स और क्षार जिनसे मिले वह 'उचित आहार'
है । आहारशास्त्र कोई धार्मिक शास्त्र नहीं है । इसलिए वह प्रोटीन्स-विटामिन्स की चर्चा पर
अधिक बल देता है । शाकाहार या मांसाहार की सिफारिश नहीं करता । ८) पक्षपात दृष्टि से किया हुआ Health Survey हमें इसी सत्य से प्राय: अवगत करेगा कि, 'शाकाहारी लोग अधिक निरोगी होते हैं और मांसाहारी लोग रोगपीडित होते हैं, लेकिन यह बात
हम सिद्ध नहीं कर सकते । ९) इसी प्रकार अगर Moral Survey याने नीतिशास्त्रीय सर्वेक्षण किया जाएँ तो यह सिद्ध नहीं होगा __कि शाकाहारी लोग ‘अधिक नैतिक' हैं और मांसाहारी लोग ‘कम मात्रा में नैतिक' हैं।
भारतीयों की यह दृष्टि है कि, 'हम शाकाहारी हैं, इसलिए हम में नीतिमूल्यों की भी उच्चता है', लेकिन सच्ची बात यह है कि नीतिमूल्यों की बात तो दूर, सामान्य नागरिकशास्त्र के नियमों का पालन भी भारतीय समाजव्यवहार में दिखायी नहीं देता । १०) जिस प्रकार खेत में बीज आदि लगाकर अनाज पैदा किया जाता है उसी प्रकार आजकल
पर्यावरण की हानि किये बिना नये नये वैज्ञानिकी तरीकों का उपयोग करके पोल्ट्रीज, फिशरीज और पिगरीज् बनायी जाती हैं । उनका मत यह है कि यह प्रक्रिया खेती से बहुत ज्यादा भिन्न नहीं
यह तो प्राय: मान्य ही करना पडेगा कि सामाजिक सुव्यवस्था रखने के लिए, रखे हुए नियमों का पालन करना आद्य नैतिक कर्तव्य है । उन सबको बाय-पास करके आध्यात्मिक मूल्यों की बात करना, सरासर निष्फल है।