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________________ खजुराहो की कला और जैनाचार्यों की समन्वयात्मक एवं सहिष्णु दृष्टि 719 वृत्ति का विकास हुआ उसका बहुत कुछ श्रेय जैनाचार्यों को भी है। पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1962. सन्दर्भ-ग्रन्थ दी मुग़ल एम्पायर, आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, शिवलाल एण्ड कम्पनी, मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति, कु. नीना जैन, काशीनाथ सराफ, आगरा, 1967. विजयधर्म सूरि, समाधि मन्दिर, शिवपुरी, 1991. / सूरीश्वर अने सम्राट, मुनिराज विद्याविजय जी, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि अभिनन्दन ग्रन्थ, अगरचन्द नाहटा व भँवर भावनगर, सं० 1979. लाल नाहटा, मणिधारी जिनचन्द्र सूरि अष्टम शताब्दी समारोह समिति, जगद्गुरु हीर, मुमुक्षु भव्यानन्द, विजयश्री ज्ञान मन्दिर, घाणेराव, दिल्ली, सन् 1971. मारवाड़, संवत् 2008. अकबर दी ग्रेट, वि०ए० स्मिथ, ऑक्सफोर्ड ऐट दी क्लेरण्डन प्रेस. जैन शासन दीपावली नो खास अंक, हीरविजय सूरि ऑर दी जैन्स ऐट 1919. दी कोर्ट ऑफ अकबर, चिमनलाल डाह्याभाई, हर्षचन्द भूराभाई, बनारस दी रिलीजियस पॉलिसी ऑफ़ दी मुग़ल एम्परर्स, श्री राम शर्मा, एशिया सिटी, संवत् 2438. खजुराहो की कला और जैनाचार्यों की समन्वयात्मक एवं सहिष्णु दृष्टि खजुराहो की मन्दिर एवं मूर्तिकला को जैनों का प्रदेय क्या है? जैनाचार्यों ने इन परिस्थितियों में बुद्धिमत्ता से काम लिया, इस चर्चा के पूर्व हमें उस युग की परिस्थितियों का आकलन कर लेना उन्होंने युगीन परिस्थितियों से एक ऐसा सामंजस्य स्थापित किया, जिसके होगा / खजुराहो के मन्दिरों का निर्माणकाल ईस्वी सन् की नवीं शती कारण उनकी स्वतन्त्र पहचान भी बनी रही और भारतीय संस्कृति की के उत्तरार्ध से बारहवीं शती के पूर्वार्ध के मध्य है / यह कालावधि एक उस युग की मुख्य धारा से उनका विरोध भी नहीं रहा / उन्होंने अपने ओर जैन साहित्य और कला के विकास का स्वर्णयुग है किन्तु दूसरी वीतरागता एवं निवृत्ति के आदर्श को सुरक्षित रखते हुए भी हिन्दू देव ओर यह जैनों के अस्तित्व के लिए संकट का काल भी है। मण्डल के अनेक देवी-देवताओं को, उनकी उपासना पद्धति और गुप्तकाल के प्रारम्भ से प्रवृत्तिमार्गी ब्राह्मण परम्परा का पुनः कर्मकाण्ड को, यहाँ तक कि तन्त्र को भी अपनी परम्परा के अनुरूप अभ्युदय हो रहा था। जन-साधारण तप-त्याग प्रधान नीरस वैराग्यवादी रूपान्तरित करके स्वीकृत कर लिया। मात्र यही नहीं हिन्दू समाज व्यवस्था परम्परा से विमुख हो रहा था, उसे एक ऐसे धर्म की तलाश थी जो उसकी के वर्णाश्रम सिद्धान्त और उनकी संस्कार पद्धति का भी जैनीकरण करके मनो-दैहिक एषणाओं की पूर्ति के साथ मुक्ति का कोई मार्ग प्रशस्त कर उन्हें आत्मसात् कर लिया। साथ ही अपनी ओर से सहिष्णुता और सद्भाव सके / मनुष्य की इसी आकांक्षा की पूर्ति के लिए हिन्दूधर्म में वैष्णव, का परिचय देकर अपने को नामशेष होने से बचा लिया / हम प्रस्तुत शैव, शाक्त और कौल सम्प्रदायों का तथा बौद्ध धर्म में वज्रयान सम्प्रदाय आलेख में खजुराहो के मन्दिर एवं मूर्तिकला के प्रकाश में इन्हीं तथ्यों का उदय हुआ। इन्होंने तप-त्याग प्रधान वैराग्यवादी प्रवृत्तियों को नकारा को स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे। और फलत: जन-साधरण के आकर्षण के केन्द्र बने / निवृत्तिमार्गी श्रमण खजुराहो के हिन्दू और जैन परम्परा के मन्दिरों का निर्माण परम्पराओं के लिए अब अस्तित्व का संकट उपस्थित हो गया था। उनके समकालीन है, यह इस तथ्य का द्योतक है कि दोनों परम्पराओं में किसी लिए दो ही विकल्प शेष थे या तो वे तप-त्याग के कठोर निवृत्तिमार्गी सीमा तक सद्भाव और सह-अस्तित्व की भावना थी। किन्तु जैन मन्दिर आदर्शों से नीचे उतरकर युग की माँग के साथ कोई सामंजस्य स्थापित समूह का हिन्दू मन्दिर समूह से पर्याप्त दूरी पर होना, इस तथ्य का सूचक करें या फिर उनके विरोध में खड़े होकर अपने अस्तित्व को ही नामशेष है कि जैन मन्दिरों के लिए स्थल-चयन में जैनाचार्यों ने बुद्धिमत्ता और होने दें। दूर-दृष्टि का परिचय दिया ताकि संघर्ष की स्थिति को टाला जा सके। बौद्धों का हीनयान सम्प्रदाय, जैनों का यापनीय सम्प्रदाय, ज्ञातव्य है कि खजुराहो का जैन मन्दिर समूह हिन्दू मन्दिर समूह से लगभग आजीवक आदि दूसरे कुछ अन्य श्रमण सम्प्रदाय अपने कठोर निवृत्तिमार्गी 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है / यह सत्य है कि मन्दिर निर्माण आदर्शों से समझौता न करने के कारण नामशेष हो गये। बौद्धों का दूसरा में दोनों परम्पराओं में एक सात्विक प्रतिस्पर्धा की भावना भी रही तभी वर्ग जो महायान के रास्ते यात्रा करता हुआ वज्रयान के रूप में विकसित तो दोनों परम्पराओं में कला के उत्कृष्ट नमूने साकार हो सके किन्तु हुआ था, यद्यपि युगीन परिस्थितियों से समझौता और समन्वय कर रहा जैनाचार्य इस सम्बन्ध में सजग थे कि संघर्ष का कोई अवसर नहीं दिया था, किन्तु वह युग के प्रवाह के साथ इतना बह गया कि वह वाम मार्ग जाये क्योंकि जहाँ हिन्दू मन्दिरों का निर्माण राज्याश्रय से हो रहा था, वहाँ में और उसमें उपास्य भेद के अतिरिक्त अन्य कोई भेद नहीं रह गया था। जैन मन्दिरों का निर्माण वणिक् वर्ग कर रहा था / अत: इतनी सजगता इस कारण एक ओर उसने अपनी स्वतन्त्र पहचान खो दी तथा दूसरी आवश्यक थी कि राजकीय कोष एवं बहुजन समाज के संघर्ष के अवसर ओर वासना की पूर्ति के पंक में आकण्ठ डूब जाने से जन-साधारण की अल्पतम हों और यह तभी सम्भव था जब दोनों के निर्माणस्थल पर्याप्त श्रद्धा से भी वंचित हो गया और अन्ततः अपना अस्तित्व नहीं बचा सका। दूरी पर स्थित हों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212166
Book TitleSamrat Akbar aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorReligion
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size530 KB
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