Book Title: Samrat Akbar aur Jain Dharm Author(s): Religion Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 1
________________ ७१७ सम्राट अकबर और जैन धर्म भारतीय इतिहास में धार्मिक महिष्णुता एवं सद्भाव के सहिष्णुता एवं सद्भाव की दिशा में अपने प्रयत्न प्रारम्भ किये हों। जीवन प्रतिष्ठापकों में जिन सम्राटों का उल्लेख मिलता है उनमें सम्राट अशोक के अन्तिम काल में उसमें जो कुछ धार्मिक कट्टरता के लक्षण प्रतीत होते एवं हर्ष के बाद सम्राट अकबर का नाम आता है। भारतीय मुस्लिम शासकों हैं, उनका कारण यह है कि जीवन की अन्तिम अवस्था में परलोक के में जो सामान्यतया धार्मिक दृष्टि से कट्टरतावादी रहे हैं, अकबर ही एक भय के कारण धर्म के प्रति एक विशेष लगाव उत्पन्न हो जाता है। अन्तिम मात्र ऐसा व्यक्तित्व है, जो सिद्धान्त एवं व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से काल में उसकी धार्मिक कट्टरता सम्भवत: इसी का परिणाम थी। अपेक्षाकृत रूप में धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव का समर्थक रहा है, उसके मन में जो धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव विकसित हुआ चाहे यह उसने अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु ही किया हो। यह उसका कारण क्या था, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कुछ विद्वानों ने यह सत्य है कि वह अन्य धर्म व परम्पराओं के आचार्य, सन्तों और विद्वानों भी माना है कि वह जैन आचार्यों के प्रभाव के परिणामस्वरूप हुआ था। को अपने दरबार में सम्मानपूर्वक स्थान देता था। अकबर की धार्मिक जैन धर्म अपने प्रारम्भिक काल से ही अनेकान्तवाद का समर्थक रहा है उदारतावादी दृष्टि के परिणामस्वरूप अनेक कट्टर मुस्लिम उलेमा भी और उसका सिद्धान्त धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव का समर्थक है। यह उसके आलोचक एवं विरोधी रहे हैं, फिर भी अकबर ने उनकी परवाह तो स्पष्ट है कि अकबर हीरविजय, समयसुन्दर, विजयसेन, भानुचन्द्र न करके अपने प्रशासन में अन्य धर्म-परम्परा के लोगों को समुचित स्थान आदि अनेक जैन आचार्यों और मुनियों के सम्पर्क में रहा है। जैन धर्म दिया और उनकी भावनाओं को समझने का प्रयत्न किया। में धार्मिक सहिष्णुता व सद्भाव का विकास जो अनेकान्त के सिद्धान्त अकबर में धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव की दृष्टि किन कारणों पर हुआ है उसकी समस्त चर्चा तो यहाँ सम्भव नही है, किन्तु उसके से विकसित हुई, यह विवाद का विषय है? इस सम्बन्ध में इतिहासकारों आधार पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि अकबर के जीवन में एवं समालोचकों के मन्तव्य अलग-अलग हैं। कुछ यह मानते हैं कि धार्मिक सहिष्णुता व सद्भाव के एवं पशुवध और मांसाहार को कम अकबर ने अपनी नीतियों में जिस धार्मिक उदारता का परिचय दिया उसका करने सम्बन्धी जिस दृष्टिकोण का विकास हुआ, वह आचार्यों के कारण उसकी राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा ही थी। वह अपने प्रशासन में जिस सम्पर्क का ही परिणाम था। अमन व शान्ति की अपेक्षा रखता था, वह धार्मिक कट्टरता में सम्भव अकबर से जिन जैन आचार्यों का विशेष रूप से सम्बन्ध रहा न होकर धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव के द्वारा ही सम्भव थी। अपनी है उनमें हीरविजय सूरि, विजयसेन सूरि, भानुचन्द्र उपाध्याय, उपाध्याय इस उदारवादी दृष्टि के आधार पर वह भारतीय जन-मानस को विशेष शान्तिचन्द्र, उपाध्याय समयसुन्दर, उपाध्याय सिद्धिचंद्र, जिनचंद्रसूरि, रूप से हिन्दू जन-मानस को प्रभावित करना चाहता था और यह दिखाना नन्दविजय, जयसोम, महोपाध्याय साधुकीर्ति आदि मुख्य हैं। अत: चाहता कि वह एक मुस्लिम शासक होकर भी हिन्दुओं का हितचिन्तक अकबर में पशु-वध, मांसाहार-निषेध तथा धार्मिक सहिष्णुता की जो है। अत: विचारक यह मानते हैं कि उसकी यह धार्मिक सद्भाव व सहिष्णुता प्रवृत्ति देखी जाती है उसका एक कारण उस पर इन जैन सन्तों का प्रभाव की नीति वस्तुत: उसकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का ही परिणाम है, भी है। अकबर ने जैन सन्तों को जो फ़रमान प्रदान किये थे, उनसे भी क्योंकि अपने प्रशासन के प्रारम्भ और अन्त में वह एक कट्टर मुस्लिम इन तथ्यों की पुष्टि होती है। अकबर के द्वारा जैन आचार्यों के जारी फ़रमानों शासक के रूप में हमारे सामने आता है, जबकि उसका मध्यकाल धार्मिक में मुख्य फ़रमान और उनकी विषयवस्तु निम्नलिखित हैउदारता का परिचायक है। इससे यह फलित होता है कि अकबर की धार्मिक आचार्य हीरविजय सूरि को अकबर द्वारा प्रदत्त प्रथम फ़रमान सहिष्णुता की नीति उसकी प्रशासनिक आवश्यकता थी, क्योंकि यदि में यह निर्देश है कि पर्युषण के १२ दिनों में उन क्षेत्रों में जहाँ जैन जाति स्वभावत: इन सिद्धान्तों में उसकी आस्था होती तो जिस जजिया कर को निवास करती है, कोई भी जीव न मारा जाय। मिति ७ जमादुलसानी, उसने समाप्त किया था, उसे ही अपने सुस्थापित होने बाद पुनः लागू हिजरी, सन् ९९२। (देखें-नीना जैन, मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति, नहीं करता। पृ०१६१-१६२) दूसरा दृष्टिकोण यह भी है कि अकबर वस्तुत: एक उदार दूसरा फ़रमान भी हीरविजय सूरि को दिया गया। इसमें दृष्टिकोणसम्पन्न व्यक्ति था, क्योंकि उसने अपने जीवन के आधार पर यह सिद्धाचल (शत्रुजय), गिरिनार, तारंगा, केशरियाजी, आबू (सभी पाया था कि हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों ही धर्मों के कट्टरतावादी लोग वस्तुत: गुजरात), राजगिरि, सम्मेद शिखर आदि जैन तीर्थ-क्षेत्रों में पहाड़ों पर जन-मानस को गुमराह करते हैं और सामाजिक शान्ति को भंग करते हैं। तथा मन्दिर के आस-पास कोई भी जीव न मारा जाय। इस उल्लेख के फतेहपुर सीकरी में बनाए गए इबादतखाने में ये धार्मिक लोग किस प्रकार साथ यह भी कहा गया है कि यद्यपि पशु-हिंसा का निषेध इस्लाम के से अपने स्थान आदि को लेकर आपस में लड़ते थे, इस सबको देखकर विरुद्ध लगता है, फिर भी परमेश्वर को पहचानने वाले मनुष्यों का कायदा सम्भव है उसे धर्मान्धता से वितृष्णा उत्पन्न हो गयी हो और उसने धार्मिक है कि किसी के धर्म में दखल न दें। ये अर्ज मेरी नज़र में दुरुस्त मालूम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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