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________________ 718 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ पड़ी। तारीख 7 माह उरदी बेहेस्त मुताबिक रविउल अवल वही, सन् किन्तु यह निश्चित है कि उसकी जो भी अनुभूति थी, वह जैन दर्शन के 37 जुलुसी। यह इलाही संवत् 35 मुताबिक २८वीं मुहर्रम, सन् 999 अनेकान्त सिद्धान्त के अनुकूल थी। यह भी निश्चय है कि आचार्यों ने हिज़री का है। (देखें-वही, पृ०१६३-१६४) उसकी इस अनुभूति को अपने अनेकान्त सिद्धान्त के अनुकूल बताकर होरविजय को दिये गए तीसरे फ़रमान में विशेष रूप से धार्मिक उसे पुष्ट किया होगा और परिणामस्वरूप अकबर पर उनकी इस उदारसहिष्णुता एवं सद्भाव की बात कही गयी है। (वही, पृ०१६५-१६६) वृत्ति का प्रभाव हुआ होगा। चौथा फ़रमान अकबर द्वारा विजयसेन सूरि को प्रदान किया अकबर पर जैन साधुओं का प्रभाव इसलिये भी अधिक पड़ा गया था। ये हीरविजय के शिष्य थे। इस फ़रमान में यह लिखा है कि क्योंकि वे नि:स्पृह और अपरिग्रही थे, उन्होंने राजा से अपनी सुख-सुविधा हर महीने में कुछ दिन गाय, बैल, भैंस आदि को नहीं खाना और उसे के लिए कभी कुछ नहीं माँगा, जब भी बादशाह ने उनसे कुछ माँगने उचित एवं फ़र्ज मानना तथा पक्षियों को न मारना तथा उन्हें पिजड़े में की बात कही तो उन्होंने सदैव ही सभी धर्मों के अनुयायियों के संरक्षण कैद न करना। जैन मंदिरों एवं उपाश्रयों पर कोई कब्जा न करे तथा जीर्ण तथा पशु-हिंसा व मांसाहार के निषेध के फ़रमान ही माँगे। मन्दिरों को बनवाने पर उन्हें कोई भी व्यक्ति न रोके। इस तरह यह भी इस प्रकार हम देखते हैं कि अकबर, जहाँगीर एवं शाहजहाँ निर्देश है कि वर्षा आदि होना या न होना ईश्वर के अधीन है, इसका दोष तक मुग़ल-सम्राटों की जो उदार नीति रही है उसके मूल में इनके जैन साधुओं पर देना मूर्खता है। जैनों को अपने धर्म के अनुसार अपनी दरबारों में उपस्थित और इन सम्राटों के द्वारा आदृत जैन आचार्यों का धार्मिक क्रियाएं करने देना चाहिए। तारीख, शहर्युर, महीना इलाही, सन् भी महत्त्वपूर्ण हाथ है। 46 मुताबिक तारीख 25 महीना सफन, हिजरी सन् 1010 / (वही, हमें यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि जैनाचार्यों पृ०१६७-१६८) के प्रभाव के अतिरिक्त ऐसे अन्य तथ्य भी थे जिनका प्रभाव अकबर की अकबर का पाँचवाँ फ़रमान जिनचन्द्र सूरि को दिया गया है। उदारवादी नीति पर रहा होगा। अकबर की धार्मिक उदारता का एक कारण आचार्य जिनचन्द्र सूरि ने 'पर्युषण के बारह दिनों में हिंसा न हो', ऐसा यह भी था कि उसके पिता को और स्वयं उसे भी अपनी सत्ता के लिए आदेश प्राप्त किया था। उसमें पूर्व बारह दिनों के अतिरिक्त आषाढ़ शुक्ल हिन्दुओं की अपेक्षा मुस्लिमों से ही अधिक संघर्ष करना पड़ा था और की नवमीं से पूर्णमासी तक भी किसी जीव की हिंसा नहीं की जाय, ऐसा अकबर ने यह समझ लिया था कि भारत पर शासन करने में उसके मुख्य निर्देश है-तारीख 31 खुरदाद इलाही, सन् 49 (वही, पृ० 171) प्रतिस्पर्धी हिन्दू न होकर मुसलमान ही हैं। दूसरे यह कि उसने हिन्दुओं अकबर द्वारा जैन साधुओं का सम्मान करने तथा उन्हें फ़रमान पर शासन करने हेतु उनका सहयोग प्राप्त करना आवश्यक समझा था। देने की जो परम्परा प्रारम्भ हुई थी, उसकी विशेषता यह थी कि उसकी इस प्रकार राजनैतिक परिस्थितियों ने भी उसे धार्मिक उदारता की नीति अगली पीढ़ी में भी न केवल साधुओं को उनके दरबार में स्थान मिला स्वीकार करने हेतु विवश किया था। अपितु उन्हें शहजादों की शिक्षा का दायित्व भी दिया गया। अकबर के अन्त में, जैसा कि स्पष्ट है, अकबर में धार्मिक उदारता का पश्चात् जहाँगीर एवं शाहजहाँ ने भी इसी प्रकार के अमारी अर्थात् पशु- एक क्रमिक विकास देखा जा सकता है। प्रारम्भ में वह एक निष्ठावान हिंसा-निषेध के फ़रमान दिये। अकबर के मन में मांसाहार एवं पशुहिंसा- मुसलमान ही रहा है। चाहे वह कट्टर धर्मान्ध न रहा हो फिर भी उसके निषेध के लिए जो विचार विकसित हुए थे, उनके पीछे इन जैनाचार्यों प्रारम्भिक जीवन में उसकी इस्लाम के प्रति निष्ठा अधिक थी, किन्तु का प्रभाव रहा है, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता। राजपूत राजाओं से मिले सहयोग एवं राजपूत कन्याओं से विवाह के अकबर में जो धार्मिक सहिष्णुता व सद्भाव की भावना का परिणामस्वरूप उसमें धार्मिक उदारता का प्रादुर्भाव हुआ। उसने अपनी विकास हुआ उसका एक कारण यह भी था कि उसने स्वयं अपनी अनुभूति रानियों को अपनी-अपनी धार्मिक निष्ठाओं एवं विधियों के अनुसार के आधार पर यह जान लिया था कि कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है और उपासना की अनुमति दी थी। धीरे-धीरे फकीरों एवं साधुओं के सत्संग चरमसत्य को जान लेना मानव के वश की बात नहीं। फतेहपुर सीकरी से भी उसमें एक आध्यात्मिक चेतना का विकास हुआ और उसने के इबादतख़ाने में वह विभिन्न धर्मों के विद्वान् आचार्यों की बातें सुनता युद्धबन्दियों को मुसलमान बनाने और गुलाम बनाने की प्रथा को समाप्त था और अन्य धर्मों के प्रति की गयी उनकी समालोचना पर ध्यान भी किया। सर्वप्रथम उसने सन् 1563 में तीर्थयात्रियों पर से कर तथा उसके देता था, इससे उसे यह ज्ञान हो गया था कि कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है। बाद जजिया कर समाप्त कर दिया, साथ ही गैर मुसलमानों को अपने किसी भी धर्म-परम्परा द्वारा अपनी पूर्णता का एवं अपने को एकमात्र सत्य धार्मिक स्थलों को निर्मित करवाने की छूट दी और उन्हें उच्च-पदों पर होने का दावा करना निरर्थक है। यह वही दृष्टि थी जो कि अनेकान्त की अधिष्ठित किया। ये ऐसे तथ्य हैं जो बताते हैं कि अकबर में जिस धार्मिक तत्त्व विचारणा में जैन-आचार्यों ने प्रस्तुत की थी और जिसे उन्होंने दर्शन उदारता का विकास हुआ था, वह एक क्रमिक विकास था। इस क्रमिक परम्परा का आधार बनाया था। चाहे अकबर में यह उदार या अनेकान्तिक विकास से यह भी प्रतिफलित होता है कि वह परिस्थितियों एवं व्यक्तियों दृष्टि जैन आचार्यों के प्रभाव से आयी हो या धर्माचार्यों के पारस्परिक से प्रभावित होता रहा है। अत: जैनाचार्यों के द्वारा भी उसका प्रभावित वाद-विवाद और समीक्षा के कारण, जिनका सम्राट स्वयं साक्षी होता था, होना स्वाभाविक है। अत: अकबर के जीवन में जो उदारता एवं अहिंसक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212166
Book TitleSamrat Akbar aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorReligion
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size530 KB
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