________________ 302 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्ष बण्ड -. - . -. -. - - - अप्रतिषिद्धशरीरमात्र उपधि का पालन श्रमण इस लोक में निरपेक्ष और परलोक में अप्रतिबद्ध होने से कषायरहित वर्तता हुभा मुक्ताहार विहारी होता है। स्वयं अनशन स्वभाव वाला होने से (अपने आत्मा को अनशनस्वभाव वाला जानने से) और एषणाशुन्य होने से मुक्ताहारी साक्षात् अनाहारी ही है। 2 मुक्ताहार एक बार, ऊनोदर, यथालव्ध, भिक्षाचरण से, दिन में, रस की अपेक्षा से रहित और मधु मांस रहित होता है। अल्पलेपी श्रमण श्रमण को शरीर और संयम रूप मूल का जैसे छेद न हो वैसा आचरण करना चाहिए। यदि श्रमण आहार, विहार, देश, काल, श्रम, क्षमता तथा उपधि को जानकर प्रवृत्ति करता है तो अल्पलेपी होता है। सम : श्रमण यदि श्रमण अन्य द्रव्य का आश्रय करके अज्ञानी होता हुआ मोह, राग अथवा द्वेष करता है तो विविध कर्मों से बँधता है, यदि ऐसा नहीं करता तो नियम से विविध कर्मों को नष्ट कर करता है। जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग समान है, सुख-दुःख समान है, प्रशंसा और निन्दा के प्रति जिसे समता है, जिसे लोष्ठ (मिट्टी का ढेला) और सुवर्ण समान है तथा जीवन-मरण के प्रति समता है, वह श्रमण है। निरास्त्रव और सास्रव श्रमण प्रवचनसार में कुन्दकुन्द ने शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी दो प्रकार के श्रमण कहे हैं। इनमें से शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं, शेष सास्रव हैं / ऐसा होते हुए भी आचार्य कुन्दकुन्द ने शुभोपयोगी की क्रियाओं का निषेध नहीं किया है, बल्कि उनकी कौन-कौन-सी क्रियायें प्रशस्त हैं, इसका प्रवचनसार में विस्तृत रूप से वर्णन किया है। अन्त में शुद्धोपयोगी की प्रशंसा में वे कहते हैं कि शुद्धपयोगी को श्रामण्य कहा है और शुद्ध को दर्शन तथा ज्ञान कहा है, शुद्ध के निर्वाण होता है, शुद्ध ही सिद्ध होता है, उसे नमस्कार हो। इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में श्रमणों की निर्दोष चर्या पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। उनके प्रवचनसार में श्रमणचर्या का जो यथार्थ चित्र प्राप्त होता है, वह अन्यत्र विरल है। 1. वही, 226. 2. वही, 227 (अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका). 3. वही, 226. 4. वही, 230, 5. आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उधि / जाणिता ते समणो वह दि जदि अप्पलेवी सो।।---वही 231. 6. वही, 243-44. समसत्तु बंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।-वही 241. प्रवचनसार-२४५. 6. वही, 245-68. 10. सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं / सुद्धस्स य णिवाणं सो च्चिय सुद्धो णमो तस्स ॥-वही, 274. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org