Book Title: Shraman Charya Vishyak Kundkund ki Drushti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 1
________________ श्रमणचर्या विषयक कुन्दकुन्द की दृष्टि Dडॉ. रमेशचन्द्र जैन [जैन मन्दिर के पास, बिजनोर (उ०प्र०)] दिगम्बर जैन आचार्यों की परम्परा में कुन्दकुन्द का स्थान सर्वोपरि है। भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद उनके नाम का स्मरण किया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द निर्दोष श्रमणचर्या के कट्टर समर्थक थे, असंयतपने के वे प्रबल विरोधी थे। दर्शन और आचार उभयपक्ष को उन्होंने समान रूप से स्वीकार किया था, उनके अनुसार आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती। पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता।' पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का संवर करने वाला, तीन गुप्ति सहित, कषायों को जीतने वाला तथा दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण श्रमण संयत है। जो जीव निर्ग्रन्य रूप से दीक्षित होने के कारण संयम तथा तप संयुक्त हो वह भी यदि ऐहिक कार्यों सहित वर्तता है तो लौकिक है । संयम और तपस्या में रत श्रमण का किसी के प्रति राग नहीं होना चाहिए। राग बन्धन का कारण है, चाहे वह भगवान के प्रति ही क्यों न हो? कुन्दकुन्द की दृष्टि में संयम तथा तप संयुक्त होने पर भी नव पदार्थों और तीर्थंकर के प्रति जिसकी बुद्धि का झुकाव है, सूत्रों के प्रति जिसकी रुचि है, उस जीव को निर्वाण दूर है। निर्वृत्तिकाम के लिए वीतरागी' होना आवश्यक है। साधु आगमचक्षु साधु का नेत्र आगम है। आगमहीन श्रमण आत्मा को तथा 'पर' को नहीं जानता । पदार्थों का नहीं जानने वाला भिक्षु कर्मों का क्षय कैसे कर सकता है ? जो कर्म अज्ञानी लक्षकोटि भवों में खपाता है, वह कर्म ज्ञानी १. ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदवि अस्थि अत्थेसु । सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ।। -प्रवचनसार-२३७. २. पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ। दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ।। -प्र०सा०-२४०. णिग्गंथं पव्वइदो वहदि जदि एहिगेहिं कम्मेहिं । सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंपजुत्तो वि ॥ -वही, २६६. सपयत्थं तित्थयरं अभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स । दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपउत्तस्स ।। -पंचास्तिकाय-१७०. पंचास्तिकाय-१७२. आगमचक्खू साहू"""|| -प्र०सा० २३४. आगमहीणो समणो णेवप्पाणं पर वियाणादि । अविजाणन्तो अत्थे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ।।-प्र.सा. २३३. * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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