Book Title: Shraman Charya Vishyak Kundkund ki Drushti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 3
________________ भमणचर्या विषयक कुम्बकुम्ब को दृष्टि २५. ऐसे व्यक्तियों के लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम वे मिथ्यात्व का त्याग कर भाव की अपेक्षा नग्न हों, अनन्तर जिनाज्ञा के अनुसार द्रव्यलिंग धारण करें।' आभ्यन्तर भावदोषों से रहित जिनवर लिंग (बाह्य निर्ग्रन्थ लिंग) प्रकट करना श्रेयस्कर है। भाव मलिन जीव बाह्य परिग्रह के प्रति भी मलिनमति हो जाता है। भावसहित मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप चार आराधनाओं को पा लेता है। भावरहित मुनि दीर्घ संसार में भ्रमण करता है। जिन-भावनावजित नग्न दुःख पाता है, बोधि को प्राप्त नहीं करता है, क्योंकि द्रव्य की अपेक्षा तो सभी नग्न रहते हैं । नारकी तथा तिर्यच तो नग्न रहते ही हैं, मनुष्यादिक भी कारण पाकर नग्न होते हैं, तथापि परिणाम अशुद्ध होने से भावधमणपने को नहीं प्राप्त करते हैं ।५ जिसके परिणाम अशुद्ध हैं, उसका बाह्य परिग्रह त्यागना अकार्यकारी है। वस्त्रादि को त्यागकर तथा हाथ लम्बे कर कोई कोटाकोटि काल तप करे तो भी यदि भावरहित है तो उसकी सिद्धि नहीं है। बाह्य परिग्रह का त्याग भाव की विशुद्धि के लिए किया जाता है। जो आभ्यन्तर परिग्रह से युक्त है, उसका बाह्य त्याग विफल है। ३. कुछ श्रमण दिगम्बर रूप जिनलिंग को ग्रहण कर उसे पापमोहितमति होकर उसे हास्यमात्र के समान गिनते थे । आचार्य कुन्दकुन्द ने उन्हें नारदलिंगी कहा है। ४. कुछ लिंगी बहुत मान कषाय से गर्वित होकर निरन्तर वाद करते थे, द्यूतक्रीड़ा करते थे, लिंगपाहुड में उन्हें नरकगामी बतलाया गया है।" ५. कुछ श्रमणलिंग धारणकर अब्रह्म का सेवन करते थे, कुन्दकुन्द ने उन्हें संसाररूपी कान्तार में भ्रमण करने वाला लिखा है।" ६. कुछ लिंगी दूसरे गृहस्थों के विवाह सम्बन्ध कराते थे। वे कृषि, वाणिज्य तथा जीवघात रूप कार्य को करते थे। ७. कुछ चोरों, झूठ बोलने वालों तथा राजकार्य करने वालों में परस्पर युद्ध अथवा विवाद करा देते १. भाव भावपाहुड, ७३. २. पयहिं जिणवलिगं आभिन्तरभावदोस परिसुद्धो। भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मलिनमई॥-भावपाहुड ७०. भावपाहुड ६६. ४. वही, ६८. ५. वही, ६७. परिणामम्मि असुदे गंथे मुच्चेइ बाहरे य जई। बाहिर गंथच्चाओ भावविहणस्स किं कुणइ॥-भावपाहुड ५. ७. वही, ४. ८. भावविसुद्धिणिमित्त बाहिरगंथस्स कीरए चायो। बाहिरचाओ विहस्से अभंतरगंथजुत्तस्स ॥-भावपाहुड ३. जो पावमोहिदमदी लिगं घेत्त ण जिणवरिंदाणं । उवहसइ लिंगिभावं लिगिम्मिय णारदो लिंगी॥-लिंगपाहड ३. १०. लिंगपाहुड ६. ११. वही, ७. १२. लिंगपाहुड--६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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