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________________ 164 कु० अरुणा आनन्द दिग्भ्रमित होने लगी थी। प्रज्ञाबल असीम होने पर भी प्रसिद्ध योगियों का आचार-पक्ष शून्य होता जा रहा था। ऐसी स्थिति में आचार्य हरिभद्र ने बड़ी सूझबूझ से काम लिया और योग के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने के लिए योग का अभिनव स्वरूप जनता के समक्ष रखा जो साम्प्रदायिक भेद से रहित तथा सर्वसमन्वयभाव का सूचक था। प्रारम्भिक योगाधिकारी का चित्रण कर, योग की प्राथमिक योग्यताओं के रूप में कुछ अनिवार्य नियमों का निर्धारण कर उन्होंने साधक के लिए मनोभूमि तैयार की है / नींव दृढ़ होने पर ही भवन भी सुदृढ़ होता है अतः योग के उच्च शिखर पर पहुँचने के लिए उनके द्वारा तैयार की गई योग्य मनोभूमि बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। वर्तमान में प्राथमिक योग्यता की प्रासंगिकता . वर्तमान स्थिति भी आचार्य हरिभद्र कालीन सामाजिक व धार्मिक स्थिति जैसी ही है। आज योग का यथार्थ स्वरूप लुप्त हो चुका है। योग का केवल बाह्य रूप ही प्रकाशित हो रहा है। योग केवल आसन, प्राणायाम, शारीरिक-शिक्षा, व्यायाम अथवा प्रदर्शन की कला नहीं है अपितु मनुष्य की बाह्याभिमुखी चित्तवृत्तियों को अन्तर्मुखी बनाने तथा आत्मस्वरूप की उपलब्धि कराने का परमोत्कृष्ट साधन है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले योग का प्रचार कम होता है जबकि आज अपने प्रचार के लिए योग के बाह्य स्वरूप का ही सहारा लिया जा रहा है। परिणामस्वरूप योग भ्रांत हो रहा है। अतः हरिभद्र द्वारा निर्धारित योग की प्राथमिक अनिवार्य योग्यता का पूर्वसेवा के रूप में जो मौलिक चिन्तन हुआ है वह वर्तमान युगीन मानव के लिए अत्यन्त उपयोगी एवं अनिवार्य लोक व्यवहार है और योगी बनने से पूर्व साधक के भावों एवं आचरण को पवित्र बनाने में अत्यन्त सहायक है इसलिए अनिवार्य रूप से पालनीय है। शोध सहायिका बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी दिल्ली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211790
Book TitleYoga ka Adhikari Haribhadriya yog ke Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherZ_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf
Publication Year1994
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size532 KB
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