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________________ योग का अधिकारी ૧૬૨ हरिभद्र ने योग-साधना की पूर्वावस्था में तप को अनिवार्य रूप से आचरणीय माना है । उन्होंने तप के अन्तर्गत जैनेतर परम्परा' में प्रचलित कृच्छ्र, चान्द्रायण, मृत्युघ्न और पापसूदन आदि व्रतों को भी सम्मिलित कर दिया है। ऐसा करने में सम्भवतः उनके मन में यह विचार उद्भूत हुआ हो कि यदि जैन परम्परा में अणुव्रत महाव्रतों का पालन करने वाले को बती कहा जाता है तो जैनेतर परम्परा के चान्द्रायणादि व्रतों को करने वाला भी व्रती क्यों नहीं हो सकता अर्थात् उसे भी व्रती कहना चाहिए । ५ ) मोक्ष के प्रति अद्व ेष भाव - मोक्ष के प्रति द्वेष भाव न रखना अर्थात् मोक्ष के प्रति प्रेम करना एक अत्यन्त अनिवार्य कर्तव्य कर्म है जिसकी योग साधना में बहुत आवश्यकता अनुभव की गई है। योग मोक्ष का हेतु है । मोक्ष भोग और सुख से रहित होता है, परन्तु कुछ भवाभिनन्दी जीवों का संसार में इतना राग होता है कि वे संसार में ही अनुरंजित रहते हैं, उसे ही अपना सर्वस्व मानने लगते हैं । ऐसी रागयुक्त अवस्था में संसार से मोह का त्याग सम्भव नहीं । अतः मोक्ष से द्वेष होना स्वाभाविक है' ऐसी अवस्था में जीव जन्म-मरण के चक्र में फँसकर संसार - वर्धन करने में लगे रहते हैं । मोक्ष के प्रति द्वेष भाव का त्याग कर उसको प्राप्त करने की जिज्ञासा तथा तत्प्राप्ति के उपायों में रुचि लेना अत्यन्त अनिवार्य कर्तव्य कर्म है । इसीलिए इसकी गुरुदेव पूजन से भी अधिक महत्ता स्वीकार की गई है । उपर्युक्त नियमों का पालन किये बिना साधक को योग साधना के अग्रिम सोपानों पर चढ़ने की योग्यता प्राप्त नहीं होती, इसलिए आचार्य हरिभद्र ने इन्हें योग-साधना की प्रारम्भिक भूमिका / प्राथमिक योग्यता के रूप में अनिवार्य माना है । उक्त सभी क्रियाओं का समावेश पतंजलि के नियम ( जिसमें क्रियायोग भी समाहित है ) के अन्तर्गत हो जाता है । अन्तर इतना ही है कि पतंजलि ने इन्हें स्पष्ट रूप से पूर्व भूमिका के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया । वस्तुतः यम और नियम दोनों ही योग की आधार भूमि हैं । इसीलिए पतंजलि ने इन्हें प्रथम और द्वितीय योगांग के रूप में चित्रित किया है अन्यथा वे इन्हें प्रत्याहार के पश्चात् स्थान देते । आचार्य हरिभद्र ने अपने योग-ग्रन्थों में योग की आधार भूमि के रूप में उक्त प्राथमिक योग्यताओं पर इसलिए विशेष बल दिया है क्योंकि उनके समय में यम-नियम को छोड़कर षडंग योग की परम्परा चल पड़ी थी और आसन प्राणायाम जैसी क्रियाओं को ही योग के रूप में प्रचारित किया जा रहा था । साम्प्रदायिक भेद इतने बढ़ गये थे कि सामान्य जनता १. व्रतानि चेषां यथायेषं कृच्छ्रचान्द्रायण सान्तापनादीनि । पा० यो० सू० २।३४ २. तपोऽपि च यथाशक्ति कर्त्तव्यं पापतापनाम् । तच्च चान्द्रायणं कृच्छ्र मृत्युघ्नं पापसूदनम् || योगबिन्दु १३१ ३. योगबिन्दु, १३६ ४. वही, १३९ ३. वही, १४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211790
Book TitleYoga ka Adhikari Haribhadriya yog ke Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherZ_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf
Publication Year1994
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size532 KB
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