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________________ विचारा कि 'धनवान्' का वास्तविक अभिप्राय होता क्या है? शुभधन से युक्त मात्र ‘धनाढ्य' नहीं। व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर 'शुभ-लाभ' पद अंकित रहता है। दीपावली के, लक्ष्मी-पूजन के, अवसर पर आपसी संबंधों के नवीनीकरण एवं दृढ़ीकरण हेतु मंगल संदेश (ग्रीटिंग कार्ड) भेजने की प्रथा का आजकल अधिक प्रचलन दिखाई पड़ने लगा है। उन संदेशों में भी 'शुभ-लाभ' का उल्लेख होता है। ऐसा 'लाभ' जो 'शुभ' है - जो शुभ कमों द्वारा अर्जित किया गया हो - उचित साधनों द्वारा प्राप्त किया गया हो। परंतु 'लाभ' की 'शुभता' के स्थान पर मिलावट, बेईमानी, भ्रष्टाचार का बोलबाला है। हमने साधन को साध्य मान लिया है। धन जीवन को सुचारु रूप से संचालन के लिये आवश्यक है परंतु जीवन का एकमात्र ध्येय नहीं है। मूल्यों से प्रेरित समूह को 'समाज' की संज्ञा दी जा सकती है। पर दोहरे मापदंडों में मूल्यों की चर्चा अरण्यरोदन सी प्रतीत होती है। कथनी और करनी का अंतर दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। बाह्य आडंबर के युग में, व्यक्ति सामाजिक व्यवहार में सौम्य उदार तथा दयालु दिखाई पड़ता है। पुलिपिट पर खड़े होकर, समाज के ठेकेदार, देश के कर्णधार, सत्य की, ईमानदारी की देशोद्धार की दुहाई देते हैं परंतु असलियत में वे ही शीघ्र धनी बनने की लिप्सा में कुकर्म कराते है, खाद्य पदार्थों में मिलावट कराते है। राजनीति का अपराधीकरण तथा अपराधियों को राजनैतिक-प्रश्रय प्राप्ति भी इसी का एक दूसरा पहलु है। ___ “जिओ और जीने दो” एक चिरंतन गौरवशाली और महिमामंडित सिद्धांत है। हर प्राणी की अपनी गरिमा और महत्ता है। रंग, वस्त्र, भोजन, स्थान, देशादि तो बाह्य स्थितियां मात्र हैं। सबके प्रति उदारता, व्यक्तिगत तथा सामाजिक स्तरों पर समानता का एकीकरण परम आवश्यक है। परंतु अपने आग्रहों के मंडन अन्यों के खंडन की प्रवृत्ति समाज में घोर संकट का कारण बन रही है। महावीर और महात्मा द्वारा उद्घोषित तथा प्रतिपादित 'अहिंसा' के 'जप' को हमने तलवार की नोक और बंदूक की नलियों से उड़ा दिया है - 'हिंसा' को जीवन का सर्वोच्च सिद्धांत मान लिया है। जिसका विकृत रूप मारकाट, चोरी डकैती, साम्प्रदायिक दंगों, घृणा, भ्रष्टाचार और चतुर्दिक फैली अनुशासनहीनता के रूप में परिलक्षित हो रहा है। समाज की जड़ो को खोखला करते इस हिंसा के घुन को हमें दूर भगाना है - सदा सदा के लिए उससे मुक्ति पानी है - अन्यथा आने वाली पीढ़िया हमें कभी क्षमा नहीं करेगी। 'ब्रज-आश्रम' बांस मंडी, मुरादाबाद 244001 * * * * * (923) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211717
Book TitleManvi Mulya aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSharda Swarup
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size485 KB
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