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________________ संपत्ति है - वह विश्व का सर्वाधिक धनी व्यक्ति है। विश्व के अनेक विकसित और विकासशील देशों में कुछ परिवार अत्यधिक समृद्धशाली है। उन्होंने व्यापार पर एकाधिपत्य जमा लिया है। जिससे उस पदार्थ विशेष को वे मनमाने दामों पर क्रय विक्रय कर अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं। इसी प्रकार कुछ समृद्धशाली देश अपने हथियारों की खपत के लिये, कम शक्तिशाली देशों को लड़ा कर बंदरबाट की स्थिति बनाए रखने में भलाई समझते है। जिसका दुष्प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ता है। कई देशों की विपन्नता, संपन्न देशों की देन है - कृत्रिम है - स्वार्थ से प्रेरित है। अपने देश की खपत से अधिक उपज को समुद्र में बहा देना, जला देना स्वीकार है परंतु निर्धन-दुर्भिक्ष पीड़ित देशों को देना नहीं। अन्यथा सत्ता संतुलन डगमगाने लगेगा। भ्रातृत्व और मैत्री का सिद्धांत प्राचीन है परंतु सनातन है - इनकी आवश्यकता आज मानव अस्तित्व की रक्षा के लिये अधिकाधिक अनिवार्य हो गई है। ___यह सर्वमान्य सत्य है कि मानव स्वभाव में देवत्व तथा दानवत्व का सम्मिश्रण होता है किसी में देवत्व का अंश कम किसी में अधिक। मात्रा में अंतर आधार पर दुर्जन और सज्जन के स्वभाव का निर्धारण होता है। एक विदेशी विचारक ने बड़ी सटीक बात कही है। में कुछ परिवार अत्यधिक समृद्धशाली है। उन्होंने व्यापार पर एकाधिपत्य जमा लिया दानव में विश्वास छोड़ देना आधुनिक सभ्यता की महती भूल है क्योंकि वही (दानव ही) इसकी व्याख्या है। कहने का तात्पर्य है कि आधुनिक सभ्यता की विकृतियों के लिये मानव स्वभाव में दान बाहुल्य उत्तरदायी है। अपने अंदर के दानव को यदि हमें वश में रखना है, उसके द्वारा संचालित नहीं होना है तो मन:काय वचन तीनों द्वारा शुभ, समाजपयोगी कर्म ही अभिप्रेत हैं। अनुशासित, मर्यादित और समाजोपयोगी जीवन जीने की कला इसी में है कि पदार्थ होते हुए भी उसके प्रति आसक्ति न हो - वास्तव में गहराई से विचारने पर यह एक घोर तपस्या से कम नहीं - जितना इसका कह देना या लिख देना सरल है उतना ही इसका पालन और अनुकरण कष्ट साध्य है। परंतु अधिक उत्पादन से समस्या का निदान संभव नही, वह संभव हो सकता है सही वितरण से। इस तथ्य को तो अर्थशास्त्री ने ही प्रतिपादित किया है। आज उपभोक्तावाद का बोलबाला है। आज धनी देश अथवा धनी व्यक्ति देश की अधिकांश उपज और धन पर सर्प की भांति कुंडली मार कर बैठ गए हैं। उपभोग का अंतहीन सिलसिला जारी है - परंतु क्या उपभोक्ता को तृप्ति का लेशमात्र भी उपलब्ध है? उत्तर नकारात्मक ही होना पड़ेगा - आवश्यकता की पूर्ति धधकती ज्वाला - सा है - जितनी आहुति दी जाय - समिधा-प्रेक्षवण किया जाय उतनी ही विकराल लपटें उठती रहेंगी। कषायितजिव्हा वाले व्यक्ति को जल सुस्वादु, मीठा प्रतीत होता है ऐसी ही गति उपभोगोपलब्धि से होती है। ऐसी स्थिति में, आवश्यकताओं का परिसीमन एक बहुत व्यावहारिक व सुखद उपाय है। धनी निर्धन के बीच की खाई कम होगी, उत्पादन-वितरण की आर्थिक व सामाजिक समस्या सुलझेगी साथ ही आत्मिक संतोष भी प्राप्त होगा। आज का व्यक्ति, उसकी समस्त गतिविधियां अर्थप्रधान हो गई है। वह प्रात: उठता है तो धनोपार्जन की चिंता लेकर, दिनभर व्यस्त रहता है तो उसी में, रात्रि को शैया पर जाता है तो उसी के विषय में सोचता हुआ। अनेक व्यक्तियों को तो अर्थ-चिंता में रात्रि को निद्रा भी नहीं नसीब होती वह धनोपार्जन के नए-नए तरीके उसके अधिकारियों की कुदृष्टि से छिपाने के उपाय आदि ही सोचता रहता है। यही कारण है कि दोहरा जीवन जीने वालों की संख्या बढ़ रही है। पर हमने कभी शांत चित्त से नहीं (२२२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211717
Book TitleManvi Mulya aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSharda Swarup
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size485 KB
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