Book Title: Manvi Mulya aur Jain Dharm
Author(s): Sharda Swarup
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 1
________________ 299999999999 मानवीय मूल्य और जैन धर्म 388888888888888888888888 . डॉ. (श्रीमती) शारदा स्वरूप 33333333380855095993593-80033388088 'दर्जनों पुलिसकर्मी बेटिकट यात्रा करते हुए पकड़े गये', 'जमीन विवाद में पुत्र ने पिता का सिर फोड़ा', 'कर्नाटक प्रांत में, मैसूर-स्थित, जैन साधु बाहुबली की विशाल मूर्ति को नक्सलियों से खतरा', 'लाखों के घोटाले में नगर पालिका प्रमुख के प्रति अविश्वास प्रस्ताव', 'घर में घुसकर सामूहिक बलात्कार', सशस्त्र बदमाशों ने ट्रेक्टर सवारों से हजारों लूटे', 'दो प्रमुख राजनैतिक दलों के नेताओं के बीच गाली गलौच', 'एक सवारी गाड़ी में शक्तिशाली बम विस्फोट - सैकड़ों हताहत', 'जबर्दस्त हंगामें के बीच लोकसभा का अधिवेशन स्थगित' ये हैं एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र में हाल ही में प्रकाशित कुछ शीर्षक। इसी प्रकार की अन्य अनेकानेक घटनाएं देश भर के समाचार-पत्रों की सुर्खियों में स्थान पाती रहती है। चाहे वह भगवान बाहुबली की मूर्ति को भूमिसात् कर देने की धमकी हो अथवा राजनैतिक दलों के नेताओं की नोकझोंक, नगर पालिका में भ्रष्टाचार का आरोप, या ट्रेन में बमविस्फोट की आतंकवादी त्र का संपत्ति संबंधी विवाद अथवा किसी महिला के प्रति पाशविक दराचरण, राह चलते नागरिकों से लूटपाट या देश की सर्वोच्च प्रतिनिधि सभा का हंगामें के कारण स्थगन इन सब के मूल में एक ही सूत्र दौड़ता है। व्यक्तिगत स्तर पर हो, सामाजिक स्तर पर अथवा राजनैतिक स्तर पर, एक सूचना इस तथ्य को लेकर स्पष्ट है, कि माननीय मूल्यों का घोर अवमूल्यन हुआ है। नैतिकता की भावना आज के मानव से कोसों दूर चली गई है। एक स्वस्थ समाज में क्या होना चाहिये और क्या हो रहा है उसमें महान् अंतर परिलक्षित हो रहा है। समाज अस्वस्थ है। उसको उपचार की आवश्यकता है और ऐसा उपचार की जो दूरगामी, प्रभावोत्पादक और चिरस्थायी है। ऐसा उपचार धर्म द्वारा ही संभव है। धर्म का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है सामाजिक चरित्र का उत्थान। सामाजिक नैतिकता जब भी पतनोन्मुख हुई है, अमानवीय आचरण में बढोत्तरी हुई है, धर्म द्वारा ही उसे अनुशासित किया गया है। इसमें दो मत नहीं है कि जैन धर्म अत्यंत प्राचीन होते हुए भी परम वैज्ञानिक और व्यावहारिक है। इसका दृष्टिकोण उदारतावादी है और तर्क विज्ञान सम्मत। इसी कारण इसकी प्रासंगिकता आज के अति भौतिकता से पीड़ित और गृधुता से ग्रसित वातावरण में भी समाप्त नहीं हुई है। दुःख कदाचित् जागतिक जीवन का एक कटु सत्य है और दुःख के निराकरण का उपाय, सुख की अभिलाषा भी उतना ही शाश्वत सत्य है। परंतु दुःख से बचने के उपाय या सुखोपलब्धि के साधन मानव की सोच में है। उसके विचारने का ढंग विकृत हो गया है। वह केवल अपने को केंद्र में रखकर सोचता है। व्यक्ति से परिवार, परिवार से कुटुंब तत: समाज, देश, राष्ट्र और विश्व बनते हैं। परंतु यदि मनुष्य मात्र अपने या अपने मूल परिवार के सुख ऐश्वर्य का ही ध्यान रखेगा तो समाज का क्या होगा? मनुष्य समाज का अंग है और क्रमशः विश्व का भी। आजकल जैसे संयुक्त परिवारों का विघटन हो रहा है वैसे ही समूचा देश भी विघटन के कगार पर खड़ा है। (२२०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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