Book Title: Manvi Mulya aur Jain Dharm Author(s): Sharda Swarup Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 2
________________ संसार में विविध प्रकार की विसंगतियां दिन प्रतिदिन पनप रही है। धनी निर्धन, ऊंचनीच, जातपात, धर्मविधर्म, आस्था अनास्था की विसंगतियां मनुष्य द्वारा स्वयं उत्पादित की गई है। ये विसंगतियां मानव दुःख का प्रमुख कारण है और उसकी सुख की खोज में सबसे बड़ा व्यवधान। इसीलिये ऐसे धर्म की शरण में जाने की महती आवश्यकता है जिसके द्वारा इन बहुआयामी समस्याओं को समझा जा सके और निराकरणार्थ पहल भी की जा सके। जैन धर्म में पंच महाव्रतों की स्थापना की गई है - जो मुनियों के लिए हैं - गृहस्थों द्वारा पालनीय पत्रचाणुव्रत अपेक्षाकृत कम कठोर हैं - सुगम है - साथ साथ समाज के सर्वांगीण विकास तथा कल्याण की कुंजी है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बह्मचर्य तथा अपरिग्रह ये पांच अणुव्रत आज के परिप्रेक्ष्य में विशेषत: उपयोगी हैं - शर्त यह है कि हम इनको मात्र सिद्धांत मान कर न चले वरन् जीवन में कार्यरूप में परिणित करने का दृढ़ संकल्प और साहस जुटा पाएं। इन पांचों में से किसी एक को अलग करके नहीं जिया जा सकता ये अन्योन्याश्रि है और भावना तथा व्यवहार दोनों के स्तर पर परस्पर संपृक्त भी। एक समय था जब मनुष्य प्रकृति का दास था पर आज वह उसका स्वामी बनने का दम भरने लगा है। भौतिक विज्ञान की प्रगति से उसके नेत्र चमत्कृत हो गये हैं। इतनी तीव्र गति से ज्ञान विज्ञान का विकास हो रहा है कि एक शाखा का विशेषज्ञ भी उसकी समूची जानकारी रखने का दावा नहीं कर सकता। भौतिक उपकरणों के प्रभाव में पहले के मनुष्य ने, दुःख अधिक भोगे थे। सुखों की प्राप्ति ही उसके परलोक की, स्वर्ग की कल्पना का आधार थी। आज वह धरती को ही स्वर्ग बना कर जीना चाहता है। पर वह सुख सुविधा के समस्त साधन जुटा कर भी सुखी नहीं हैं। वह शांति की खोज में भटक रहा है। सुख और शांति की तलाश मृगतृष्णा बन गई है। धूप से तपती बालू पर पानी के लिये भटकते हिरन को दूर पर जल की सत्ता का आभास होता है - दौड़ता हुआ वहाँ तक पहुँचता है परंतु चिलचिलाती धूप में चमकते रेत कणों के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता। ___ आधुनिक मनुष्य ने बहुत कुछ अंशों में प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है। जल, अग्नि, वायु, प्रकाश अंधकारीय प्राकृतिक तत्वों को अपना दास बना लिया है। विज्ञान द्वारा उपार्जित शक्ति के सहारे यंत्रचलित सा जीवन व्यतीत कर रहा है- बटन दबाने मात्र से बहुत कुछ कार्य संपन्न हो जाते है - परंतु जैसा कि किसी विचारक ने कहा है -"मनुष्य ने पक्षियों की भांति उड़ना सीख लिया है, मछलियों की भांति तैरना सीख लिया है परंतु एक मानव की भांति जीना नहीं सीखा विज्ञान द्वारा प्रदत्त गति और शक्ति को हमें सीमित करना है। समाजोपयोगी जीवन जीने की कला मर्यादा में है, अनुशासन में है। अनुशासनहीन व्यक्ति समाज पर बोझ होता है। विज्ञान की प्रचुर प्रगति ने विश्व का क्षेत्र संकुचित कर दिया है। प्राविधिक सामंजस्य के संसार में मनुष्य-मनुष्य में बहुत कम अंतर रह गया है - भले ही वह प्राणी ब्रिटेन का निवासी हो या अफ्रीका का, अमरीका का, या जापान का, इसने ‘सत्वेषु मैत्री' के सिद्धांत के कार्यान्वयन को नवीन आयाम प्रदान किया है। परंतु विडम्बना यह है कि देश और स्थान के अंतर की कमी हृदयों की दूरी को कम करने के स्थान पर बिवृद्ध करती परिलक्षित होती है। औपनिवेशिक शोषण का राजनैतिक रूप समाप्त प्राय है पर आर्थिक रूप से उपनिवेशवाद की जड़ें गहरी होती जा रही है। कहा जाता है कि ब्रूनी के शेख के पास अथाह धन (२२१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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