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________________ ___ अर्थ-मैं भोंदू दुखियारा ब्राह्मण घटित अपनी कठोरता को जब कभी यदि याद करता हूँ, पढ़ाने-करने में चतुर होते हुए भी आपके धैर्य का स्मरण कर मेरा हृदय बहुत लज्जित होता है / जब कभी मैं आपके सम्मुख इसकी चर्चा वाणी करता हूँ तो आप यही कहती हैं कि यही तो आपकी प्रशंसा की जड़ है, यह कहकर हँसने लगती हो / यही कारण है कि मैं आपको बहिन मानता हूँ / संसार ई में मानवता सभी तरह पालनी चाहिए। अन्तेऽप्यज्ञः कृतज्ञो मृदुतमवचनां सोहनां मातरं मे, जैनो भक्तः सतीं तां वदति वदतु मे काऽपि हानिर्न मन्वे / नाहं मन्ये कृतघ्नं स्वमतिशयतमं वच्मि भावेन मेऽन्तः, लोके रीतिः सदेयं जनयति जननी किन्तु धर्मेण माता // 30 // अर्थ-आखिर मैं नासमझ, किन्तु अत्यन्त कोमल वचनों वाली स्वर्गीय सोहनकुँवर सतोजी को मैं माता मानता हूँ। श्रावक उनको सतीजी म. मानते हैं या कहते हैं, इससे मेरी कोई हानि नहीं है / वस्तुतः मैं अपने आपको कृतघ्न नहीं मानता, अतएव माता कहता हूँ / यों तो संसार में जो जन्म in देती है, वही माता कहलाती है और धर्म से सभी स्त्रियाँ माँ-बहिनें हैं। किमिति कविरहं वर्णयेयं कथञ्चित्, सरलपदमयं सारशून्यं विचित्रम् / तदपि मम मते काव्यमेतत्सु भावम्, वहति किमपि हृद्यं बालवाचोऽप्यसारम् // 31 / / अर्थ-क्या जैसे-तैसे अर्थहीन ऊटपटांग कुछ वर्णन कर लेता हूँ इससे मैं कहीं कवि नहीं हो सकता ! परन्तु अर्थहीन तुतलाती बोली से बच्चा बोलता है, उसे सुनकर जैसा आनन्द आता है, ठीक वैसे ही मेरी कविता से आपको आनन्द आता है, ऐसा मैं कवि हूँ। न किमपि मम पद्यं वर्तते काव्यतुल्यम्, तदपि यदि लिखेयं साहसं मे क्षमायाः / रस-गुण-कवितायास्तत्त्ववेत्त: कवेस्तत्, प्रहसनमिव चित्तें मोदयत्येव चित्तम् // 32 / / अर्थ-मेरी कविता कोई कविता नहीं है, किन्तु आप मुझे क्षमा प्रदान कर देंगे, इसलिए मुझे कुछ लिखने का साहस हो जाता है / रसोली कविता के जानकार कवियों के लिए तो यह मेरी कविता 'प्रहसन' के समान है। कुछ तो कवियों दिल में अच्छा लगता होगा। कथयति यदि पद्यं व्यंगसंगेन नित्यम्, तदपि न पुनरन्तस्तोषमाप्नोति हृद्यम् / रचयति पुनरेवं शंकरोऽयं रमायाः, कविरपि सुशकोऽर्थः संगतः किन्तु स्वप्ने // 33 // अर्थ-यदि कोई कवि सव्यंग पद्य कहता है तो वास्तव में हृदय को प्रिय सन्तोष प्राप्त होता है, यह जानते हुए यदि लक्ष्मी का शंकर अर्थात् भला चाहने वाला रमाशंकर कवि का सही अर्थ हो सकता है, किन्तु यह सब स्वप्न में ही संगत हो सकता है, जगते हुए संसार में कभी नहीं हो सकता। R मेला 536 सप्तम खण्ड : विचार मन्थन 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ द Jain Education International Foarte 3 Dersonalise Only www.jainelibrary.org
SR No.211464
Book TitleBalbramhacharinya Shrimatya Kusumvatya Satya Yash Saurabham
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size863 KB
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