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________________ पृथिवी पर यश में लिप्त होकर यह साधक है। यह भी गुणमय रहस्य सब मैं जानता हूँ, यह सब दुनिया का में चलता है । इसलिए मैं मानता हूँ कि जगत् का कारण अनोखा है। निर्लज्जोऽहं वदेयं सदसि मुनिजने लोकलीलासमाप्ते, मिथ्याश्लाघाभिलाषे पुनरियमधुना निःस्पृहो दृश्यतेऽन्ते । तत्त्वज्ञानी मनुष्यो भवति मुनिजनान् वन्दते स्वेच्छया यः, भक्त्या तेषां गुणानां कथयति बहुधा पद्यवृन्दे महत्त्वम् ॥२५।। अर्थ-लोकलीला समाप्त करने वाले मुनिजन पर, जो कि झूठी डींग की चाह रखते हैं, जैसा ा कि वह अन्त में निस्पृह दिखता है, उसको ज्ञानी तो अपनी इच्छा से वन्दना करता है और कविता में उनके गुणों की प्रशंसा करता है, ऐसा मैं देखता हूँ। अन्ते भक्त्यैव सत्याः सुकुसुमसुरभे नामवत्या भगिन्याः, मातुः कैलाशवत्या गुणगणनिचयं यावदन्तं स्मरेयम् । नामं नामं यशोभ्यः सकलगुणभृतः पुण्यरूपं मदन्तः, नृत्यत्येवं सहर्ष किमु कृतिवचनैः प्रेर्यमाणो जनोऽयम् ।।२६।। __ अर्थ-अन्त में, मैं सतीजी के प्रति भक्ति से, प्रशस्त खिले हुए पुष्पों की गन्धवाली नामवाली सतीजी जो मेरी बहिनजी हैं, क्योंकि स्वर्गीय कैलाशवतीजी, जो मेरी माता थीं, उनकी आप पुत्री हैं, ६५ अतः मैं आपको बहिनजी कहता हूँ, क्योंकि मेरा मन उनके गुणों को यावज्जीवन याद करता रहेगा। अच्छे - गुणों की माता कैलाशवतीजी के यशों के लिए झक-झक कर मेरा मन नाचता रहता है। अधिक क्या कहूँ, मैं तो एक विवश सा हूँ। सत्या दिव्यप्रभाया मदुतमवचनेः प्रेरितं मेऽपि चित्तम्, कीर्तेर्मुग्धं सदेदं रसमयकथनेश्चिन्तयित्वा गुणौघम् । स्मृत्वा स्मृत्वा कथञ्चिल्लिखति मतिमयं पद्यवृन्दं विचित्रम्, विद्वल्लोके प्रशस्तं कथमपि प्रभवेन्नास्ति चिन्ता ममेयम् ॥२७॥ अर्थ-सतीजी श्री दिव्यप्रभाजी महाराज के अत्यन्त मृदुवचनों से प्रेरित हुआ मेरा मन भी जो सदा कीतिलोभी और खुशामदी बातों से गुणों को सोचविचार और बार-बार याद कर एक ऊटपटाग पद जैसे मनगढन्त कुछ लिख रहा हूँ ! यह विद्वज्जन को अच्छा लगेगा कि नहीं, यह तो मुझे चिन्ता ही नहीं है । (क्योंकि मैं जानता ही क्या कहूँ !) सत्यं बुध्यामि लोके कुसुमवति हे धर्मपूज्ये वदान्ये । वक्त वाणीं न जाने तदपि तव कथामिङ्गितेन ब्रवीमि । तत्त्वज्ञात्री दयायास्त्वमसि बहुतो भावमुग्धाऽप्यनन्या, कीर्तश्चिन्ता न तेऽन्तविहरति भुवने जैनधर्म स्तुवन्ती ॥२८॥ अर्थ-ए धर्मपूज्य ! विदुषि ! कुसुमवति ! मैं यदि ठीक समझता हूँ अथवा जानता हूँ तो मैं वर्णन करना भी नहीं जानता, फिर भी मैं कुछ आपको इशारे से बताना चाहता हूँ। दया के तत्त्व की जानकार भावमुग्ध आप अकेली ही हो, जैनधर्म की स्तुति करती हुई निश्चिन्त विहार करती रहती हो। भूदेवोऽयं विपन्नः स्मरति यदि कदा कर्कशत्वं स्वकीयम्, शिक्षादाने प्रवीणो रहसि तव धति लज्जते सर्वथाऽन्तः । चर्चावाचां प्रकुर्वे हससि बहुतरं तस्य मूलं यशस्ते, तस्मान्मन्ये स्वसारं जगति मनुजता सर्वथा पालनीया ॥२६॥ सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन ५३५ Od0 साध्वीरत्न कुसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.211464
Book TitleBalbramhacharinya Shrimatya Kusumvatya Satya Yash Saurabham
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size863 KB
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