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डॉ. अशोक कुमार सिंह
अन्तराय कर्म की पाँच उत्तरकर्म प्रकृतियों का उल्लेख है। 49 उत्तर कर्मप्रकृतियों के विवरण 50 की विशेषता यह है कि दर्शनावरणीय की उत्तर प्रकृतियों के क्रम में आज की दृष्टि से अन्तर है। वेदनीय की साता - असाता में से दोनों के अनेक भेद बतायें गये हैं। मोहनीय कर्म के दर्शन एवं चारित्र मोहनीय दो भेदों में चारित्र मोहनीय के उपभेद नोकषाय मोहनीय के सात या 9 भेद बताये गये हैं। नाम कर्म के पहले शुभ और अशुभ भेद किये गये फिर इन दोनों के अनेक भेदों की सूचना दी गई। गोत्र कर्म के दोनों भेदों उच्च और नीच के आठ-आठ भेद बताये गये हैं ।
इसमें मूल प्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियों का वर्णन करने के पश्चात् प्रदेशों का परिमाण, उनका क्षेत्र, काल और भाव का निरूपण है।
इसमें कर्म की मूलप्रकृतियों की अधिकतम और न्यूनतम स्थिति की चर्चा है। इन कर्मप्रकृतियों की कालावधि के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण चर्चा यह है कि वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त 1 की बतायी गयी है वहाँ अन्यत्र 12 अन्तर्मुहूर्त बतायी गयी है।
आत्मा के द्वारा कर्मपुद्गलों के ग्रहण करने और उनकी संख्या का विवरण भगवती में विस्तार से मिलता है यहाँ केवल एक ही गाथा में इसका वर्णन है।
अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उत्तराध्ययन में 33वें अध्ययन में यद्यपि कर्मसिद्धान्त का व्यवस्थित विवरण है फिर भी परवर्ती साहित्य में और भी विस्तृत विवेचना की गई है। उदाहरण के लिए इसमें नामकर्म की दो शुभ और अशुभ कर्म की दो ही उत्तरप्रकृतियों का उल्लेख है जबकि आगे चलकर इसके 42, 67, 93 एवं 103 भेदों की चर्चा मिलती है।
इससे स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन के पश्चात् भी जैन कर्मसिद्धान्त का विकास होता गया ।
स्थानांगसूत्र
आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित एवं उत्तराध्ययन की तुलना में स्थानांग में कर्म - सिद्धान्त का विकसित रूप प्राप्त होता है। स्थानांग के आरम्भ में उल्लेख है कि इस जीवन या अगले जीवन में कर्मों का फल अवश्य मिलता है। स्थानांग में देवताओं, नारकों, मनुष्यों आदि के कर्मफल के उपभोग के काल का निर्धारण करते हुए वर्तमान भव एवं अन्य भव में होने वाले कर्मफल विपाक 53 की चर्चा है। इसमें कर्म की अवान्तर प्रकृतियों से सम्बन्धित विवरण दो प्रकार के मिलते हैं। इसके द्वितीय स्थान के चतुर्थ उद्देश 54 में आठों मूलप्रकृतियों का दो-दो अवान्तर प्रकृतियों में ही वर्गीकरण है-- देश एवं सर्व, ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय की, साता और असातावेदनीय कर्म की एवं दर्शन और चारित्र, मोहनीय कर्म की। आयुष्य कर्म अद्धायुष्य (कायस्थिति की आयु ) और भवायुष्य (उसी भव की आयु), नाम कर्म - शुभ और अशुभ, गोत्र कर्म- उच्च और नीच तथा अन्तराय कर्म प्रत्युत्पन्न विनाशि55 एवं पिहित-आगमिपथ दो प्रकार का बताया गया है। स्थानांग में ही अन्यत्र इससे भिन्न ज्ञानावरणीय के 556, दर्शनावरणीय के 957 एवं नोकषाय वेदनीय के 958 भेदों का उल्लेख है। प्रसंगवश वेदनीय कर्म की दो अन्य अवान्तर प्रकृतियों क्षुधा वेदनीय 59 और लोभ वेदनीय कर्म 60 का भी उल्लेख मिलता है।
स्थानांग का उत्तर कर्म प्रकृतियों का वर्गीकरण यह इंगित करता है कि वर्तमान पद्धति से भिन्न एक अन्य परम्परा भी उत्तर प्रकृतियों के वर्गीकरण की विद्यमान थी। उस वर्गीकरण में सरलीकरण दिखलाई पड़ता है। जैसे ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के देश अर्थात् अशतः और सर्व ऐसे दो भेद थे। इसी प्रकार आयुष्य कर्म की भी वर्तमान जन्म की आयु और भविष्य में होने वाले जन्म की आयु के विचार की दृष्टि से दो ही भेद किये जाते थे तथा अन्तराय कर्म का भी विभाजन वर्तमान में प्राप्त वस्तु का विनाश और भविष्य में होने वाले लाभ के मार्ग में बाधा -- ये दो भेद थे। उल्लेखनीय है कि कर्म प्रकृति के द्विविध वर्गीकरण में से मात्र वेदनीय की साता और असाता तथा गोत्र कर्म की उच्च और नीच ही प्रचलित परम्परा में व्यवस्थित हैं। शेष की संख्या में परिवर्तन
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