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प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम
हुआ है।
___ आगमों के ग्रन्थबद्ध होने के पूर्व मूलप्रकृतियों के इस प्रकार वर्गीकरण के पीछे सम्भवतः स्मरण सुविधा की दृष्टि मुख्य रही होगी।
अवान्तर प्रकृतियों का जो उल्लेख स्थानांग के अलग-अलग स्थानों में प्राप्त होता है उसमें ज्ञानावरणीय की 5, दर्शनावरणीय की 9, वेदनीय की दो और गोत्रकर्म की दो अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख प्रचलित परम्परा के ही अनुरूप है, परन्तु उसमें नोकषाय वेदनीय कर्म के जो भेद बताये गये हैं वे परम्परागत वर्गीकरण में नोकषाय मोहनीय कर्म के 9 भेद माने जाते हैं न कि नोकषाय वेदनीय कर्म के। यद्यपि इनके नाम आदि में समरूपता है किन्तु इन्हें नोकषाय वेदनीय कर्म क्यों कहा गया है यह विचारणीय है। स्थानांग में दस की संख्या वाले तथ्यों का ही संकलन करने के कारण मोहनीय कर्म की 28 और नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख स्थानांग में न होना स्वाभाविक प्रतीत होता है परन्तु अन्तराय कर्म की 5 अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख न होना विचारणीय है। यहाँ यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उत्तराध्ययना के 33वें अध्ययन में अन्तराय की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये 5 अवान्तर प्रकृतियाँ नाम सहित निर्दिष्ट हैं इसससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उत्तराध्ययन का यह अध्ययन स्थानांग का उत्तरवर्ती है और साथ ही उत्तर प्रकृतियों की संख्या में क्रमिक विकास
हुआ है।
कर्म के प्रदेश और अनुभाव दो प्रकार बताये गये हैं।62 हिंसा आदि दुष्टकर्मों को दुश्चीर्ण कर्म (दुच्चिण्ण), तप आदि कर्मों को सुचीर्ण (सुचिण्ण)63 कहा गया है। यद्यपि इनका सैद्धान्तिक दृष्टि से विशेष महत्व नहीं है क्योंकि इनका अर्थ क्रमशः दुष्टकर्म या पापकर्म और पुण्यकर्म है और कर्मों के पुण्य और पाप होने की अवधारणा आचारांग में आ चुकी थी। स्थानांग में कर्म के शुभत्व अशुभत्व04 पर भी सम्यक् विचार किया गया है। इसे प्रकृति और बन्ध के चार भंगों के माध्यम से व्यक्त किया गया है -- 1. शुभ और शुभ 2. शुभ और अशुभ 3. अशुभ और शुभ 4. अशुभ और अशुभ। भंगों में प्रयुक्त प्रथमपद प्रकृति और द्वितीय पद अनुबन्ध के लिए है। इसी प्रकार प्रकृति और विपाक की दृष्टि से चार भंगों में कर्म का शुभत्व और अशुभत्व बताया गया है। क्रिया स्थानो के सम्बन्ध में कर्म के ईर्यापथिक और सम्परायिक कर्म का भी उल्लेख एक साथ आया है। यद्यपि सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में ईर्यापथिक और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में साम्परायिक कर्म की चर्चा है परन्तु सूत्रकृतांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध, प्रथम श्रुतस्कन्ध से बाद का माना जाता है। अतः यदि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध को स्थानांग से परवर्ती माना जाय तो स्थानांग का यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।
स्थानांग में कर्मबन्ध के चार प्रकारों प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का तथा बन्ध के दो प्रकारों प्रेय और द्वेष बन्ध का उल्लेख है।०४चारकषाय और प्रमाद का अलग-अलग निर्देश होने के साथ-साथ आसव के 5 कारणों के स्प में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का एक साथ भी निर्देश कर दिया गया है। परन्तु इससे पूर्ववर्ती ऋषिभाषित में इन पाँच कारणों का उल्लेख प्राप्त होता है अतः कर्म सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से इसमें उल्लेख होना विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं है।
___ इसमें किन-किन कारणों से मनुष्य अल्पायुष्यकर्म, दीर्घ-आयुष्यकर्म का बन्ध करता है इसका सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। यही नहीं स्थानांग में नारक, तिर्यंच मनुष्य और देवायु बाँधने के कारणों पर भी विचार किया गया है। जो कर्म-सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। नैरयिक जीवों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों के जीवों के छः प्रकार का आयुबन्ध बताया गया है।4 परभविक आयुर्बन्ध के प्रसंग में नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के सभी जीवों के भुज्यमान आयु के छ: मास के अवशिष्ट रहने पर नारकीय जीव नियम से परभव की आयु का बन्ध करते हैं। यह उल्लेख है। स्थानांग की यह अवधारणा दिगम्बर मान्यता के विपरीत है कि असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यंच वर्तमान भव की आयु के नौ माह शेष रहने पर परभव की
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