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________________ . दिगम्बरपरंपरामें आचार्य सिद्धसेन : ३९ किया है। दोनों टीकाओं में निक्षेपोंमें नयोंकी योजना करते हुए वीरसेन स्वामीने अपने कथनका सन्मति के साथ अविरोध बतलाते हुए सन्मतिसूत्रको आगमप्रमाण के रूप में मान्य किया है। किन्तु सन्मति सूत्रके दुसरे काण्डमें केवलज्ञान और केवलदर्शनका अभेद स्थापित किया गया है और यह अभेदवाद जहां क्रमवादी श्वेताम्बर परम्परा के विरुद्ध पड़ता है वहां युगपद्वादी दिगम्बर परम्पराके भी विरुद्ध पड़ता है। अतः सिद्धसेन के इस अभेदवादी मतको जैसे श्वेताम्बर परम्पराने मान्य नहीं किया और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपने विशेषावश्यक भाष्यमें उसकी कठोर आलोचना की, वैसे ही सन्मतिसूत्रको आगमप्रमाणके रूप में मान्य करके भी वीरसेनस्वामीने उसमें प्रतिपादित अभेदवादको मान्य नहीं किया और मीठे शब्दोंमें उसकी चर्चा करके उसे अमान्य कर दिया। यह एक उल्लेखनीय वैशिष्टय है कि एक ग्रन्थको प्रमाणकोटिमें रखकर भी उसके अमुक मतको अमान्य कर दिया जाता है अथवा अमुक मतके अमान्य होने पर भी उस मतके प्रतिपादक ग्रन्थको सर्वथा अमान्य नहीं किया जाता और उसके रचयिताका सादर संस्मरण किया जाता है। अकलंकदेव पर प्रभाव आचार्य अकलंकदेव आचार्य समन्तभद्रकी वाणीरूपी गंगा और सिद्धसेनकी वाणीरूपी यमुनाके संगमस्थल हैं। दोनों महान आचार्योंकी वाग्धाराएं उनमें सम्मिलित होकर एकाकार हो गई हैं। समन्तभद्रके 'आप्तमीमांसा' पर तो अकलंकदेवने अष्टशती नामक भाष्य रचा है, किन्तु सिद्धसेनके द्वारा तार्किक पद्धतिसे स्थापित तथ्योंको भी अपनी अन्य रचनाओंमें स्वीकार किया है। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है नयोंकी पुरानी परम्परा सप्तनयवादकी है। दिगम्बर तथा श्वेताम्बर परंपराएं इस विषयमें एकमत हैं। किन्तु सिद्धसेन दिवाकर नैगमको पृथक् नय नहीं मानते। शायद इसीसे वह षड्नयवादी कहे जाते हैं। अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवार्तिक में चतुर्थ अध्याय के अन्तिम सूत्रके व्याख्यान के अन्तर्गत नयसप्तभंगीका विवेचन करते हुए द्रव्यार्थिक-पर्यामार्थिक नयोंको संग्रहाद्यात्मक बतलाया है तथा छ ही नयोंका आश्रय लेकर सप्तभंगीका विवेचन किया है। तथा लघीयस्त्रयमें यद्यपि नैगमनयको लिया है तथापि कारिका ६७की स्वोपज्ञ वृत्ति में सन्मतिकी गाथा १-३की शब्दशः संस्कृत छायाको अपनाया है। यथा तिस्थयर वयण संग्रहविसेसपत्थारमूलवागरणी। दबट्रिओ य पज्जवणओ य सेसा विपरयासिं॥-सन्मति । तथा. तीर्थकरवचनसंग्रह विशेषप्रस्तावमूलव्याकरिणौ दन्यार्थिकपर्यायार्थिको निश्चेतन्यौ। - ल० स्वो० सिद्धसेनने सन्मतिमें एक नई स्थापना और भी की है। और वह है पर्याय और गुणमें अभेद की। अर्थात् पर्यायसे गुण भिन्न नहीं है। यह चर्चा तीसरे काण्डमें गाथा ८से आरम्भ होती है। इस चर्चाका उपसंहार करते हुए आचार्य सिद्धसेनने उसका प्रयोजन शिष्योंकी बुद्धिका विकास बतलाया है, क्योंकि जिनापेदशमें न तो एकान्तसे भेदभाव मान्य है और न एकान्तसे अभेदवाद, अतः उक्त चर्चा के लिये अवकाश नहीं है। (सम्मति ३-२५, २६) १. कसायपाहुड, भा० १, पृ० २६१ । षटखण्डागम पु० १, पृ० १५ । पु० ९ पृ. २४४ । पु. १३, पृ० ३५४ । कसायपाहुड, भा १, पृ० ३५७। ३ पृ० २६१। २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211167
Book TitleDigambar Parampara me Acharya Siddhasena
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherZ_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_
Publication Year
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size581 KB
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