SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४० : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रंथ अकलंक देवने भी तत्त्वार्थवार्तिक में पांचवे अध्यायके 'गुणस्यीयवद् द्रव्यम् || ३७ ||' सूत्रके व्याख्यान में उक्त चर्चाको उठाकर उसका समाधान तीन प्रकारसे किया है। प्रथम तो आगमप्रमाण देकर गुणकी सत्ता सिद्धकी है, फिर 'गुण एव पर्यायाः ' समास करके गुणको पर्यायसे अभिन्न बतलाया है । यही आचार्य सिद्धसेनकी मान्यता है । इस परसे यह शंकाकी गई है कि यदि गुण ही पर्याय हैं तो केवल गुणवत् द्रव्य या पर्यायवत् द्रव्य कहना चाहिये था - 'गुणपर्याय वद् द्रव्य' क्यों कहा ? तो उत्तर दिया गया कि जैनेतर मतमें गुणोंको द्रव्यसे भिन्न माना गया है। अतः उसकी निवृत्तिके लिये दोनोंका ग्रहण करके यह बतलाया है कि द्रव्य के परिवर्तनको पर्याय कहते है । उसीके भेद गुण हैं, गुण भिन्नजातीय नहीं हैं। इस प्रकार इस चर्चा में भी अकलंकदेवने सिद्धसेन के मतको मान्य किया है। अतः अकलंकदेव पर सिद्धसेनका प्रभाव स्पष्ट है । आचार्य विद्यानन्द और सिद्धसेन आचार्य विद्यानन्द एक तरहसे अकलंकके अनुयायी और टीकाकार थे। उन्होंने समन्तभद्र के आतमीमांसा और उस पर अकलंकदेव के अष्टशती भाष्यको आवेष्टित करके अष्टसहस्री नामक महान् ग्रन्थकी रचना की थी । तथा जैसे न्यायदर्शन के सूत्रों पर उद्योतकरकी न्यायवार्तिकसे प्रभावित होकर अकलंकदेवने तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थवार्तिककी रचनाकी थी, वैसे ही विद्यानन्दने मीमांसक कुमारिलके मीमांसा श्लोकवार्तिकसे प्रभावित होकर तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककी रचना की थी । इस तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में प्रथम अध्यायके अन्तिम सूत्र पर नयोंका सुन्दर संक्षिप्त विवेचन है । इस विवेचन के अन्तमें ग्रन्थकारने लिखा है कि विस्तारसे नयोंका स्वरूप जाननेके लिये नयचत्रको देखना चाहिये; यह नयचक्र संभवतया मल्लवादीकृत नयचक्र होना चाहिये; क्योंकि उपलब्ध देवसेनकृत लघुनयचक्र और माइल धवलकृत नयचक्र प्रथम तो संक्षिप्त ही हैं, विस्तृत नहीं है, इनसे तो विद्यानन्दने ही नयोंका स्वरूप अधिक स्पष्ट लिखा है; दूसरे, उक्त दोनों ही ग्रन्थकार विद्यानन्दके पीछे हुए हैं । अतः विद्यानन्द उनकी कृतियोंको देखनेका उल्लेख नहीं कर सकते थे, अस्तु | इस नयचर्चा में विद्यानन्दने सिद्धसेन के षड्नयवादको स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसका विरोध किया है। उनका कहना है कि नैगमनयका अन्तर्भाव न तो संग्रह में होता है, न व्यवहार में और न ऋजुसूत्रादिक में । अतः परीक्षकोंको 'संग्रहआदि है नय ही हैं ' ऐसा नहीं कहना चाहिये । १. यहां 'प्रपरीक्षक' शब्द संभवतया सिद्धसेन के लिये ही आया है, क्योंकि परीक्षा के आधार पर उन्होंने ही षड्नयवाद की स्थापना की थी। परीक्षकके साथ प्रकर्षत्वके सूचक 'प्र' उपसर्गसे भी इस बात की पुष्टि होती है, क्योंकि सिद्धसेन साधारण परीक्षक नहीं थे । इसी तरह विद्यानन्दने पांचवे अध्यायके 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' इस सूत्र की व्याख्या में गुण और पर्याय में अभेद मानकर भी सिद्धसेनानुगामी अकलंकका अनुकरण नहीं किया, किन्तु गुण और संक्षेपेण नयास्तावद् व्याख्यातास्तत्र सूचिताः । तद्विशेषाः प्रपञ्चेन संचिन्त्या नयचक्रतः ॥ १०२ ॥ त० शे० वा० पृ० २७६ संग्रहे व्यवहारे वा नान्तर्भात्रः समीक्ष्यते । नैगमस्य तयोरेकवस्त्वंशप्रवणत्वतः ॥ २४ ॥ नर्जुसूत्रादिषु प्रोक्तहेतवो वेति षण्नयाः । संग्रहादय एवेह न वाच्याः प्रपरीक्षकैः ॥ २५ ॥ - त० श्लो० वा० ६, २६९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211167
Book TitleDigambar Parampara me Acharya Siddhasena
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherZ_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_
Publication Year
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size581 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy