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३८ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रंथ
रचयिता थे और दूसरे थे महापुराण (आदिपुराण) के रचयिता । दोनोंने ही अपने अपने पुराणोंके प्रारम्भ में अपने पूर्वज आचार्यों का स्मरण करते हुए सिद्धसेनका भी स्मरण किया है।
हरिवंशपुराण स्मृत आचार्योंकी नामावली इस प्रकार है: समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दि, वज्रसूरि, महासेन, रविषेण, जटासिंहनन्दि, शान्त, विशेषवादि, कुमारसेनगुरु और वीरसेनगुरु और जिनसेन स्वामी ।
आदिपुराणमें स्मृत आचार्यों की तालिका इस प्रकार है : सिद्धसेन, समन्तभद्र, श्रीदत्त, प्रभाचन्द्र, शिवकोटि, जटाचार्य, काणभिक्षु, देव (देवनन्दि), भट्टाकलंक, श्रीपाल, पात्रकेसरी, वादिसिंह, वीरसेन, जयसेन, कवि परमेश्वर ।
प्रायः सभी स्मृत आचार्य दिगम्बर परम्परा के हैं। उन्हीं में सर्वोपरि सिद्धसेनको भी स्थान दिया गया है जो विशेष स्वरूपसे उल्लेखनीय है ।
हरिवंश पुराणकारने सिद्धसेनका स्मरण इस प्रकार किया है
जगप्रसिद्ध बोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः ।
बोधयन्ति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥ ३० ॥
जिनका ज्ञान जगत में सर्वत्र प्रसिद्ध है उन सिद्धसेन की निर्मल सूक्तियां ऋषभदेव जिनेन्द्रकी सूक्तियों के समान सज्जनोंकी बुद्धिको प्रबुद्ध करती हैं ।
इसके पूर्व समन्तभद्र के वचनोंको वीर भगवान के वचनतुल्य बतलाया है। और फिर सिद्धसेनकी सूक्तियोंको भगवान ऋषभदेव के तुल्य बतलाकर उनके प्रति एक तरहसे समन्तभद्र से भी अधिक आदर व्यक्त किया है। यहां सूक्तियों से सिद्धसेनकी किसी रचनाविशेषकी ओर संकेत प्रतीत नहीं होता । किन्तु महापुराण में तो अवश्य ही उनके सन्मतिसूत्र के प्रति संकेत किया गया है । यथा
प्रवादिकरियूथानां केसरी नयकेसरः ।
सिद्धसेनकविजयाद्विकल्पनखराङ्कुरः ॥ ४२ ॥
सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, जो प्रवादीरूपी हाथियों के झुण्ड के लिये सिंहके समान है तथा नय जिसके केसर (गर्दन पर के बाल ) हैं और विकल्प पैने नाखून हैं ।
सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र में प्रधान रूपमें यद्यपि अनेकान्तकी चर्चा है, तथापि प्रथम काण्डमें अनेकान्तवादकी देन नय और सप्तभंगीकी मुख्य चर्चा है। तथा दूसरे काण्ड में दर्शन और ज्ञानकी चर्चा है, जो अनेकान्तकी ही अंगभूत है। इस चर्चा में आगमका अवलम्बन होते हुए भी तर्ककी प्रधानता है । ओर तर्कवाद में विकल्पजालकी मुख्यता होती है जिसमें फसांकर प्रतिवादीको परास्त किया जाता है। अतः जहां सन्मतिसूत्र के प्रथमकाण्ड सिद्धसेनरूपी सिंहके नयकेसरत्वका परिचायक है, वहां दूसरा काण्ड उनके विकल्परूपी पैने नखोंका अनुभव कराता है। दर्शन और ज्ञानका केवली में अभेद सिद्ध करनेके लिये जो तर्क उपस्थित किये गये हैं, प्रतिपक्षी भी उनका लोहा माने विना नहीं रह सकते। अतः जिनसेनाचार्यने अवश्य ही सन्मति सूत्रका अध्ययन करके सिद्धसेनरूपी सिंह के उस रूपका साक्षात्परिचय प्राप्त किया था, जिसका चित्रण उन्होंने अपने महापुराणके संस्मरण में किया है ।
सन्मति सूत्रकी आगमप्रमाणरूप में मान्यता
यह जिनसेन वीरसेनस्वामी के शिष्य थे और वीरसेनस्वामीने अपनी धवला और जयधवला टीका में नयोंका निरूपण करते हुए सिद्धसेन के सन्मति सूत्रकी गाथाओंको सादर प्रमाण रूपसे उद्धृत
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