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________________ दर्शवकालिक और जीवन का व्यवहारिक दृष्टिकोण २९५ जिस मुनि से धर्मपदों की शिक्षा ग्रहण करे, उसके साथ शिक्षार्थी मुनि विनय का प्रयोग करे। उसे बद्धांजलि तथा नत-मस्तक हो वन्दन करे। वह मन, वाणी तथा काया से सदा उसका विनय करे।' आगम-ज्ञान में तत्पर मुनि, आचार्य के आदेश का लंघन न करे । विनेय आचार्य की शैया (बिछोना) से अपनी शैया नीचे स्थान में करे । गति भी नीची रखे अर्थात् आचार्य के आगे-आगे न चले । पीछे चले । चूर्णिकार लिखते हैं-शिष्य गुरु के अति समीप तथा अति दूर न चले। अति समीप चलने से रजकण उड़ते हैं, गुरु की आशातना होती है । अति दुर चलने से प्रत्यनीकता का आभास मिलता है। आचार्य जहाँ खड़े हों, शिष्य उनसे नीचे स्थान में खड़ा रहे । चणि के अनुसार नीचे स्थान में भी गुरु के आगे तथा बराबर खड़ा न रहे । अपना आसन भी गुरु के आसन से नीचा बिछाए । शिष्य नत होकर गुरु-चरणों में वन्दन करे । यद्यपि आचार्य ऊपर आसन पर विद्यमान हैं और शिष्य नीचे खड़ा है तथापि वह सीधा खड़ा-खड़ा वन्दन न करे अपितु चरण-स्पर्श हो सके उतना झुक कर करे । सीधा खड़े रहकर वन्दन करने से उनका अक्कड़पन आभासित होता है। वन्दना के लिए भी सीधा खड़ा-खड़ा हाथ न जोड़े। नीचे झुके । आचार्य के निश्रित उपकरणों से यदि शिष्य का अनुचित स्पर्श हो जाए, पैर लग जाए, ठोकर लग जाए, तो वह बद्धांजलि और नत-मस्तक हो निवेदन करे कि भगवन् ! मेरे अपराध के लिए क्षमा करें। भविष्य में मैं ऐसा अपराध न करने का संकल्प करता हूँ। पूज्य की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि---आलोइयं इंगियमेव नच्चा, जो छन्दमारायइ स पुज्जो।। विनीत शिष्य गुरु द्वारा आदिष्ट कार्य तो करता ही है पर इसी में उसके कार्य की 'इतिश्री' नहीं हो जाती। वह गुरु के निरीक्षण तथा इंगित को देखकर भी उनके अभिप्राय को समझ लेता है और कार्य सम्पादन में जुट जाता है। __ आलोकित से कर्तव्यबोध-जैसे शरद्-ऋतु है । आचार्य वस्त्र की ओर देख रहे हैं। इतने मात्र से विनीत समझ लेता है कि आचार शीतबाधित हैं, उन्हें वस्त्र की अपेक्षा है और वह तुरन्त उठकर गुरु को वस्त्र दे देता है। इंगित से कर्तव्यबोध-जैसे आचार्य के कफ का प्रकोप है। दवा की आवश्यकता है पर उन्होंने किसी को कुछ कहा नहीं। फिर भी विनीत शिष्य गुरु के इंगित मनोभावों को व्यक्त करने वाली अंग-चेष्टा से समझ लेता है और उनके लिए सौंठ ले आता है। भिक्षु का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जो भिक्षा लाकर सार्मिकों को निमन्त्रित कर, भोजन करता ह, वह भिक्षु है । जो दूसरों को हंसाने के लिए कुतुहलपूर्ण अंगचेष्टा नहीं करता, वह भिक्षु है । ___ दशवकालिक सूत्र में ऐसे और भी अनेकों उल्लेख मिलते हैं, शिक्षाएँ उपलब्ध होती हैं जो सामूहिक जीवनव्यवहार को सँवारती हैं तथा उसमें रस भरती हैं। यह तो हम पहले ही जान चुके हैं कि जीवन की अपूर्ण अवस्था में या यूं कहें कि साधना-काल में, निश्चय तथा व्यवहार परस्पर जुड़े हुए हैं। इनमें इतना गहरा सम्बन्ध है कि एक-दूसरे को विलग करना आसान नहीं है। १. दशवकालिक, ६।१।१२। २. बही, ६।१।१७। ३. वही, ६।२।१८। ४. वही, ६।३१। ५. दशवकालिक, १०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211157
Book TitleDashvaikalik aur Jivan ka Vyavaharik Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size507 KB
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