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________________ DIDI २६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड पीछे बैठने के निषेध का भी यही कारण हो सकता है कि पीछे भी सट कर न बैठे। एक कारण यह भी हो सकता है कि पीछे बैठने से गुरु के मुख दर्शन नहीं हो पाते। उसके अभाव में शिष्य गुरु के इंगित और आकार को समझ नहीं पाता । गुरु के घुटनों से घुटना सटाकर बैठने से भी विनय का अतिक्रमण होता है। अशिष्टता द्योतित होती है । सारांश की भाषा में मुनि किसी भी स्थिति में असभ्य तथा अविनयपूर्ण पद्धति से न बैठे । मुनि बिना पूछे तथा निष्प्रयोजन न बोले । दो व्यक्ति परस्पर बात कर रहे हों अथवा गुरु किसी के साथ वार्तालाप कर रहे हों, उस हालत में 'यह कार्य ऐसे नहीं, बल्कि इस प्रकार हुआ था' इत्यादि रूप में न बीच में बोले । चुगली - परोक्ष में दोषोद्घाटन न करे।" वचन व्यवहार के विषय में भी साधु को सतर्क रहना आवश्यक है। वह जन-भाषा का अन्धानुगमन न करे । जिस विषय को अपनी आंखों से देखा हो, वह भी यदि अनुपधातकारी हो तो अमन्द और अनुच्च स्वर के साथ सभ्यतापूर्वक कहे । भाषा भी प्रतिपूर्ण - स्वर व्यंजन, पद आदि सहित तथा स्पष्ट होनी चाहिए। भाषा के अस्पष्ट तथा स्खलित होने पर सुनने वाला एक बार में आशय नहीं समझ सकता। बोलने वाले को भी पुनः पुनः बोलना पड़ता है । उस पर भी न समझने पर श्रोता को भी झुंझलाहट आ सकती है । अतः एक बार सुनते ही भाषा का आशय हृदयंगम हो जाए, ऐसी स्पष्ट तथा शालीन भाषा बोलना चाहिए । वाक्य-रचना के नियमों तथा प्रज्ञापना-पद्धति को जानने वाला और नयवाद में निष्णात मुनि यदि बोलता हुआ स्खलित हो जाए, वर्ण, वचन तथा लिंग का विपर्यास कर बैठे, तो भी श्रोता मुनि उसका उपहास न करे । * धर्म का मूल विनय है और उसका परम है मोक्ष जैनागमों में विनय शब्द का प्रयोग आचार और उसकी विविध धाराओं के अर्थ में हुआ है । नम्रता उस व्यापक विनय-सरिता की एक धारा है । औपपातिक में सात प्रकार के विनय का उल्लेख मिलता है, उसमें सातवाँ प्रकार है, उपचार विनय । Jain Education International 1 यद्यपि विनय का सीधा सम्बन्ध है, अपनी आत्मा से विनय अपना ही आत्मा का सहज नम्रभाव ही तो विनय है। फिर भी पूर्वाचार्यों ने उपचार- विनय, स्थान दिया है । गुरु तथा रत्नाधिक मुनियों के आगमन पर खड़ा होना, हाथ जोड़ना, आसन देना तथा भक्ति और शुश्रूषा करना उपचार विनय है । * I उपचार- विनय आचार- विनय की पृष्ठभूमि है दशकालिक में उपचार विनय का सुन्दर दिग्दर्शन मिलता है जैसे आहिताग्नि ब्राह्मण आहुति और विविध मन्त्रपदों से अभिषिक्त पंचान्ति को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य अनन्तज्ञान से उपपेत होता हुआ भी आचार्य की विनयपूर्वक सेवा-भक्ति करे । १. दर्वकालिक ४६ २ . वही, ८।४६. ३. वही, हा२२. ४. अब्भुट्ठाणमंजलि करणं, तहेवासणदायणं । गुरुभत्ति भाव सुस्सा, विणओ एस वियाहिओ || ५. दशवैकालिक, ९1१1११. होता है, अन्य का नहीं। क्योंकि व्यवहार - विनय को भी महत्वपूर्ण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.211157
Book TitleDashvaikalik aur Jivan ka Vyavaharik Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size507 KB
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