Book Title: Dashvaikalik aur Jivan ka Vyavaharik Drushtikon Author(s): Kanakshreeji Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ दशवेकालिक और जीवन का व्यावहारिक दृष्टिकोण - साध्वी श्री कनकधी (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। अनन्त विरोधी धर्म-युगलों के साथ सामंजस्य स्थापित कर चलते रहना ही जीवन की पूर्णता है। अनन्त ज्ञय-धर्मों का भी सीमित संवेदन से ज्ञान करने का प्रशस्त साधन है, हमारे पास स्याद्वाद । पर एक साथ अनन्त धर्मों का ज्ञान व्यवहार्य नहीं हो पाता। व्यवहार्य है हमारे लिए नयवाद या स्याद्वाद । उसके सहारे हम अनभीप्सित वस्त्वंश को निराकृत किये बिना ही अभीप्सित अंश का बोध या प्रतिपादन कर सकते हैं। निश्चय और व्यवहार हमारे चिन्तन के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न रूपों में निश्चय और व्यवहार दोनों की सत्ता को स्वीकार किया है। जैन-दर्शन ने जिसे निश्चय और व्यवहार की अभिधा से अभिहित किया, बौद्ध दार्शनिकों ने उसे परमार्थ सत्य तथा लोक-संवृत्ति सत्य से पहचाना और सांख्य दर्शन ने उसे परमब्रह्म तथा प्रपंच कहकर पुकारा । स्याद्वाद की भाषा में निश्चय और व्यवहार परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। एक ही वस्तु के सहभावी व अवश्यंभावी धर्म हैं, इस दृष्टि से दोनों में अद्वैत है। निश्चय वस्तु का आत्मगत धर्म है। वह सूक्ष्म है । व्यवहार वस्तु का देह-धर्म है । वह स्थूल है। इस स्वरूपद्वैध से इन दोनों में द्वैत भी है। यद्यपि निश्चय, निश्चय ही है और व्यवहार, व्यवहार । इनमें स्वरूपैक्य नहीं हो सकता। निश्चय हमारा साध्य है तथापि उसका साधक है व्यवहार। इसलिए सभी दार्शनिकों ने निश्चय के साथ व्यवहार को तत्त्व रूप में स्वीकार किया है। यहाँ तक कि व्यवहार को जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । यह उचित ही है। क्योंकि निश्चय जहाँ उन्नत और गिरि-शृंग है, वहाँ व्यवहार उस तक पहुँचने के लिए घुमावदार पगडण्डी। पथिक उसके बिना सीधा पर्वतारोहण कर सके, यह सम्भव नहीं । निश्चय फलगत रस है और व्यवहार है उसकी उत्पत्ति, वृद्धि और संरक्षण का हेतुभूत ऊपर का कवर । निश्चय वाष्प यान है और व्यवहार गमन-साधक पटरी। साध्यावस्था में हम निश्चयमय ही बन जाते हैं ; पर साधनाकाल में निश्चय और व्यवहार दोनों घुले-मिले रहते हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि लक्ष्य प्राप्ति के बाद जीवन की पूर्णता में व्यवहार हमारे लिए अनुपयोगी है, उतना ही उपयोगी जीवन की अपूर्णता में वह है। वहाँ हम व्यवहार का त्याग कर चल नहीं सकते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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