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दर्शवकालिक और जीवन का व्यावहारिक दृष्टिकोण
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मुनि सामुदायिक भिक्षा करे। केवल जुनुप्सित कुलों को छोड़कर अन्य उच्च, नीच कुलों का भेदभाव न रखते हुए सर्व घरों से भिक्षा ले । यह न हो कि वह क्रमगत भी नीच कुलों को छोड़कर केवल बड़े-बड़े घरों की ही भिक्षा कर ले।' क्योंकि इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलता है। साधारण व्यक्ति सोचते हैं कि मुनि जी भी हमारी भिक्षा न लेकर हमारा तिरस्कार कर रहे हैं।
प्रयोजनवश गृहस्थ के घर जाए तो मुनि उचित स्थान पर खड़ा रहे तथा मित बोले । २
साधु अनेकों कुलों में जाता है । अनेकों व्यक्तियों से सम्पर्क साधता है। कानों को अनेकों बातें सुनने को मिलती हैं । आँखों को अनेकों दृश्य देखने को मिलते हैं। पर साधक को दृष्ट तथा श्रुत सभी बातें कहना उचित नहीं।
यह विचारधारा अहिंसा की सकल भित्ति पर तो सुस्थिर है ही पर इस आदर्श से संघीय तथा सामाजिक जीवन के पारस्परिक सम्बन्ध बिगड़ते-बिगड़ते बच जाते हैं। उनमें अपूर्व माधुर्य टपक जाता है।
साधु मनोज्ञ आहार तथा अन्य वांछित पदार्थ न मिलने पर बकवास न करे। उसका वाक्य प्रयोग संयत हो।
मुमुक्षु मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करे। क्योंकि क्रोध प्रीति का, अभिमान विनय का, माया मित्रों का, तथा लोभ सर्वहितों का विलोप करने वाला है ।।
मुनि रात्निक मुनियों का विनय करे।५ अट्टहास न करे ।
इहलौकिक तथा पारलौकिक हित साधन में निरत साधु, बहुश्रुत (जिसने श्रुत का बहुत अध्ययन किया है अथवा आचार्य, उपाध्यायादि) की पर्युपासना करे तथा तत्त्व का निश्चय करे।
उपासना के समय गुरु के पास कैसे बैठे ? इसकी विधि बताते हुए लिखा है-जितेन्द्रिय मुनि हाथ, पैर तथा शरीर को संयत रखे । अर्थात् हाथों को न नचाए, पैरों को न फैलाए और शरीर को आलस्यवश न मोड़े । गुरु के पास आलीन गुप्त होकर बैठे । आलीन अर्थात् थोड़ा लीन । तात्पर्य की भाषा में जो गुरु के पास न अति निकट और न अति दूर बैठे, वह 'आलीन' कहलाता है। गुरु के शब्द श्रवण में दत्तावधान तथा प्रयोजनवश सीमित वाग्व्यवहार करने वाला 'गुप्त' कहलाता है । संक्षेप में शिष्य को गुरु के. सान्निध्य में 'आलीन गुप्त' ही बैठना चाहिए। गुरु के समीप बैठने की
और भी विधियां बताई गई हैं। जैसे-शिष्य गुरु के पार्श्वभाग में, आसन्न न बैठे, बराबर न बैठे, आगे न बैठे, पीछे न बैठे और उनके घुटने से घुटना सटाकर न बैठे।
तात्पर्य की भाषा में पार्श्वभाग के निकट बराबर बैठने से शिष्य द्वारा समुच्चारित शब्द सीधा गुरु के कानों में प्रवेश करता है । जिससे गुरु की एकाग्रता भंग हो सकती है ।
गुरु के आगे अत्यन्त निकट बंठने से अविनय होता है तथा दर्शानार्थियों के गुरु-दर्शन में वह व्याघात होने का निमित्त बन जाता है।
१. दर्शवकालिक, २१५. २. वही, ८६. ३. दर्शवकालिक, ५।८।२०. ४. वही, ८।३६-३७. ५. वही, ८।४०. ६. वही, ८।४१. ७. वही, ८१४४. ८. वही, ८।४५.
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