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________________ २६२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ...--.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. काले कालं समायरे से ही मुनि की दिनचर्या सुन्दर तथा आकर्षक बन सकती है। यह एक सुन्दर व्यवस्था है । व्यवस्था से सौन्दर्य निखार पाता है । - यदि व्यक्ति के प्रत्येक कार्य के लिए समय विभक्त हो जाए और ठीक उसी समय में वह संपादित किया जाए तो कभी दौड़-धूप न करनी पड़े । इससे हमारे सभी कार्य आसानी से सध सकते हैं। समय का बचाव हो सकता है और किसी भी कार्य के लिए जल्दबाजी नहीं करनी पड़ती। इससे स्नायुयों का तनाव नहीं बढ़ता और उससे अस्वास्थ्य भी नहीं बढ़ता। समय की पाबन्दी के अभाव में जल्दबाजी करनी पड़ती है। उससे स्नायविक तनाव बढ़ता है और उससे शारीरिक रोग भी अंगड़ाइयाँ लेकर जग उठते हैं। इससे सारी व्यवस्थाएँ गड़बड़ा जाती हैं। हम जिस दिन जो कार्य करना चाहते हैं, वह हो नहीं पाता।। महात्मा गांधी ने लिखा है-कार्य-अधिकता व्यक्ति को नहीं मारती किन्तु समय की अव्यवस्था उसे बुरी तरह मार डालती है। कार्य-व्यवस्था जहाँ साधक की चित्त-विक्षिप्तता को रोक मनःस्थैर्य प्रदान करती है, वहाँ बाह्य व्यवहार को भी सुघड़ बना देती है। यद्यपि यह भिक्षा का प्रसंग है । अतः स्थूलरूपेण यही आभासित होता है कि भिक्षा के समय भिक्षा करनी चाहिए, लेकिन 'काले कालं समायरे' यह पद अपने आप में जितना अर्थ-वैशद्य छिपाए हुए है कि मुनि की प्रत्येक क्रिया के लिए यथाकाल संपादन करने का संकेत देता है। सूत्रकृतांग के चूर्णिकार भी इसी का अनुमोदन करते हुए लिखते हैं कि मुनि भिक्षा के समय भिक्षा करे, खाने के समय खाए, पीने के समय पीए, वस्त्र काल में वस्त्र ग्रहण करे । लयनकाल (गुफादि में रहने के समय अर्थात् वर्षाकाल में) में लयन करे । सोने के समय सोए। समय नियमितता का महत्त्व निश्चय दृष्टि से तो है ही, क्योंकि उसके व्यतिक्रम से चित्त-विक्षेप होता है और मानसिक समाधि में विघ्न होता है। पर व्यवहार भी अपनी स्वस्थता खो देता है । वह मुनि लापरवाह कहलाता है। भिक्षार्थ गया हुआ मुनि गृहस्थ के घर में न बैठे। न ही, वहाँ कथा-प्रबन्ध करे । २ भिक्षु भिक्षा ग्रहण करे, उतने काल तक उसे वहां खड़ा रहना पड़ता है, यह निश्चित है । पर खड़ा कैसे रहना चाहिए, इसका भी विवेक भगवान ने साधक को दिया है। मुनि अर्गला, परिधा, द्वार, कपाट, भित्ति आदि का सहारा लेकर खड़ा न रहे। इससे मुनि की असभ्यता लगने से लघुता होती है और कहीं गिर पड़ने से चोट लगने का भी भय रहता है। भक्त-पान के लिए मुनि गृहस्थ के घर जाता है, तब यदि द्वार पर कोई श्रमण, ब्राह्मण, कृपण तथा भिखारी खड़े हों तो उनका उल्लंघन कर, अन्दर प्रवेश न करे और न गृहस्वामी तथा श्रमण आदि की आँखों के सामने खड़ा रहे । वनीपक आदि को लांघकर, अन्दर प्रवेश करने से गृहपति तथा वनीपक आदि को साधुओं से अप्रीति हो सकती है अथवा जैन-शासन की लघुता प्रदर्शित होती है। गृहस्वामी द्वारा प्रतिषेध कर देने पर अथवा दान दे देने पर, जब वे श्रमणादि लौट जाएँ, तब मुनि उस घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट हो। १. दशवैकालिक, ५।२।४. २. दशवकालिक, ५।२।८. ३. दशवकालिक, ५।२।२५. ४. वही, ५।२।१०, ११, १२, १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211157
Book TitleDashvaikalik aur Jivan ka Vyavaharik Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size507 KB
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