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दशवकालिक और जीवन का व्यावहारिक दृष्टिकोण
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पड़े तो यदि साधु वहाँ पर हों तो वहाँ जाकर आहार करे। यह परस्पर प्रेम-संवर्द्धन तथा प्रेम-स्थायित्व का अनुपम साधन है।
यदि अन्यत्र भोजन करना पड़े तो जहाँ कहीं भिखारियों की भांति न खाए, किन्तु शून्यगृह या कोष्ठक में बैठकर विधिपूर्वक खाए।
आहार में ग्रास के साथ यदि कंकर, कंटक आदि आ जाएँ तो वहीं बंटा हुआ मुह से न थूके किन्तु आसन से उठकर, कंकर आदि को हाथ से लेकर, एकान्त स्थान में धीरे से रखे ।'
उपाश्रय में आकर आहार करने वाले मुनि के लिए भी अतीव मनोज्ञ तथा आकर्षक विधि बतलाई गई है।
मुनि उपाश्रय में प्रविष्ट होते समय 'रजोहरण' से पाद-प्रमार्जन करे और तीन बार 'निसीहि' शब्द का उच्चारण करे, जो कि मुनि के कार्य निवृत्त हो, स्थान-प्रवेश का सूचक है ।
गुरु के समक्ष जाते ही बद्धांजलि हो णमो खमासमणाणं' कहकर गुरु का अभिवादन करे। यह विधि भी व्यवहार के अन्तर्गत ही है । इसका समावेश विनय के सात भेदों में से लोकोपचार विनय में होता है। लोकोपचार और व्यवहार एक ही तात्पर्यार्थ को बताने वाले शब्द हैं।
__ जिस क्रम से तथा जहाँ से भिक्षा ग्रहण की हो, गुरु के समक्ष उसकी आलोचना करे। वह भी गुरु की अनुज्ञा पाकर ।
मुनि दो प्रकार के होते हैं । आहार विधि की अपेक्षा से पहले मण्डली के साथ आहार करने वाले और दूसरे अकेले आहार करने वाले । प्रथम प्रकार का मुनि जब तक मण्डली के सब मुनि न आ जाएँ, तब तक स्वाध्याय करे । न कि यह सोचकर कि मैं लाया हूँ, अतः इस आहार पर मेरा ही अधिकार है, अकेला खाने बैठ जाए। इससे पारस्परिक प्रेमपूर्ण सम्बन्धों में खटास आ सकता है।
___ अकेले आहार करने वाला भिक्षु भी भिक्षा लाकर मुहूर्त भर विश्राम करे। विश्राम के क्षणों में भिक्षार्पण सम्बन्धी चिन्तन करे। फिर आचार्य से निवेदन करे कि भगवन् ! इस आहार से यथेच्छ आहार आप स्वीकार कर, मुझे कृतार्थ करें। यदि आचार्य न लें तो वह पुनः निवेदन करे, भन्ते ! इस भैश्य से आप अतिथि, ग्लान, शैक्ष, तपस्वी, बाल तथा वृद्ध इनमें से किसी को देना चाहें तो दें। प्रार्थना स्वीकार कर यदि आचार्य अतिथि आदि को दें तो प्रसन्नमना वह साधु अवशिष्ट आहार को आचार्य की अनुज्ञा पाकर स्वयं खा ले। यदि आचार्य कहें कि तुम ही सार्मिकों को निमन्त्रित कर यदि उन्हें आवश्यकता हो तो दे दो। तब वह स्वयं मुनिजनों को सादर निमन्त्रित करे। वे यदि निमन्त्रण स्वीकार कर लें तो उनके साथ भोजन करे । यदि वे निमन्त्रण न स्वीकारें तो अकेला ही भोजन कर ले।
यहाँ सत्कारपूर्वक निमन्त्रण देने का उल्लेख किया गया है क्योंकि अवज्ञा से निमन्त्रण देना साधु-संघ का अपमान करना है । कहा भी है
एगम्मि हीलियम्मि, सव्वेते हीलिया हुन्ति ।
एगम्मि पूइयम्मि, सव्वेते पूइया हुन्ति ॥ (ओघनियुक्ति, गाथा ५२६-२७) जो एक भी साधु का अपमान करता है, वह सब साधुओं का अपमान करता है । जो एक का सत्कार करता है, वह सबका सत्कार करता है।
१. दर्शवकालिक, ५।१४८४.
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