________________ 266 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............................................ निश्चय यदि शुद्ध आत्मतत्त्व है तो व्यवहार है देह / क्या सांसारिक आत्मा देहमुक्त रह सकती है? जैसे संसारी आत्मा देह-मुक्त नहीं रह सकती और आत्म-शुन्य शरीर भी शव की अभिधा से अभिहित होता है, वैसे ही व्यवहारशून्य निश्चय अदृश्य होने के कारण अनुपयोगी तथा अव्यवहार्य है तो निश्चयविहीन व्यवहार का भी दोष तथा प्रवंचना के अतिरिक्त मूल्य नहीं रह जाता अतः उक्त तथ्यों को हम निश्चय से परे रखकर, कलेवर के रूप में ही नहीं देख सकते / नैश्च यिक दृष्टिकोण तो उनमें निहित है ही, लेकिन यदि हम एक बार नैश्चायिक दृष्टि को गौण कर केवल व्यवहार की आंखों से देखें तो भी वे सूत्र हमारे जीवन में कितने उपयोगी हैं ? ___ साधु संस्था को तो ये नियम मधुर तथा सुव्यवस्थित करते ही हैं पर इनका मूल्य राष्ट्रीय, राजनैतिक, सामाजिक तथा पारिवारिक क्षेत्रों में भी कम नहीं है। क्या ही अच्छा होता है यदि भगवान् महावीर के द्वारा निर्दिष्ट इन व्यावहारिक तथ्यों पर आज का जनमानस अमल करता? P सम्भाषमाणस्य गुरोस्त थैव, व्याकुर्वतस्तात्त्विकबोध चर्चाम् / यो नान्तराले बदतीह किंचित्, स एव शिष्यो विनीयोति बोध्यः // (श्री चन्दनमुनि रचित ) वर्धमान शिक्षा सप्तशती गुरु किसी से सम्भाषण कर रहे हों अथवा तात्त्विक विवेचन या तत्वचर्चा कर रहे हों, तब जो बीच में नहीं बोलता वैसा शिष्य विनयी समझा जाता है। --0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org