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________________ दशरूपक और नाट्यदर्पण में रस-स्वरूप एवं निष्पत्ति : एक तुलनात्मक विवेचन . 133 असत्कार्यवाद से सम्बद्ध करते हैं। पी० वी० काणे ने उनको पूर्व मीमांसक कहा है। वास्तव में पुष्ट प्रमाणों और तथ्यों के अभाव में इन पूर्वाग्रहों को प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता है। तात्त्विक दृष्टि से भट्टलोल्लट की व्याख्या किसी दार्शनिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त प्रतीत नहीं होती है, प्रत्युत आचार्य भरत के मूल मन्तव्य के अनुरूप व्यवहारवादी दृष्टिकोण पर प्रतिष्ठित है। इस तथ्य का समर्थन अनेक विद्वानों ने भी किया है। डॉ० प्रेमस्वरूप गुप्त, डॉ. नागेन्द्र, डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी और डॉ० रामलखन शुक्ल का नाम इस दृष्टि से प्रस्तुत किया जा सकता है। डॉ. ऋषि कुमार चतुर्वदी और डॉ० रामलखन शुक्ल' का विचार है कि लोल्लट का अनुकार्य से तात्पर्य कवि-निबद्ध पात्रों अथवा यों कहें कि सम्पूर्ण नाट्यकृति से ही था / वस्तुतः उनका आशय लौकिक राम आदि से ही था, कवि-निबद्ध राम आदि से नहीं, क्योंकि अपने सत्तात्मक अभाव के कारण कवि-निबद्ध पात्रों में रस की सत्ता का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है। अपने यथार्थवादी एवं वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण के कारण वह लौकिक अनुकार्य और कवि-निबद्ध अनुकार्य में अन्तर अनुभव नहीं कर सके / वास्तव में इस आक्षेप के आधार पर भी ऐसा स्वीकार करने पर रस का स्वरूप लोकिक हो जायेगा, इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। भट्टलोल्लट का रस का विवेचन लौकिक धरातल पर ही अभीष्ट था, अलौकिक धरातल पर नहीं। अतः उनकी दृष्टि में लौकिक अनुकार्य ही प्रत्यक्ष रस का वास्तविक भोक्ता है और आश्रय भी। अनुकर्ता और सामाजिक की वासना भी उनको मान्य है, तथापि इनकी रस विषयक प्रत्यक्षानुभूति उनको स्वीकार्य नहीं है। यही भट्टलोल्लट और रामचन्द्र-गुणचन्द्र में आधारभूत मौलिक साम्य है। नाट्यदर्पण में स्पष्टरूपेण राम आदि लौकिक अनुकार्य को भी रस का आश्रय स्वीकार किया गया है। लौकिक रस को स्पष्ट स्वीकृति देने वाले रामचन्द्र-गुणचन्द्र प्रथम संस्कृताचार्य हैं। इसी आधार पर वे रस का ल कगत और काव्यगत तथा नियत विषयत्व एवं अनियत अर्थात् सामान्य विषयत्व के रूप में पुनः द्विधा विभक्तिकरण करते हैं / वे भी लोकगत रस को प्रत्यक्ष एवं स्वगत कहते हैं / काव्यगत रस उनकी दृष्टि में परोक्ष और परगत है / सामाजिक को होने वाली रसानुभूति को भी वे परोक्ष ही स्वीकार करते हैं, प्रत्यक्ष नहीं। भट्टलोल्लट के ही समान अनुकर्ता की भी रसानुभूति का वे कथन करते हैं। धनञ्जय भी यहाँ इस विचार धारा के समर्थक हैं। रामचन्द्र-गुणचन्द्र की अनुभाव के स्वरूप-विवेचन की पद्धति पर भी भट्टलोल्लट का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। लौकिक प्रेम आदि को प्रत्यक्ष रस के रूप में स्वीकृत रूप आधारभूत 1. रस सिद्धान्त का दार्शनिक तथा नैतिक विवेचन पृ० 37 / ( उपर्युक्त दोनों उद्धरण डॉ० नगेन्द्र के रस सिद्धान्त के पृ० / 49 से उद्धृत / ) 2. हिस्ट्री ऑफ संस्कृत पोयटिक्स-पी० वी० काणे, पृ० 51 / 3. रसगङ्गाधर का शास्त्रीय अध्ययन पृ० 126 / 4. रस-सिद्धान्त : डॉ० नगेन्द्र पृ० 150 / 5 रस-सिद्धान्त : डॉ० ऋषि कुमार चतुर्वेदी पृ० 58 / 6. साधारणीकरण : एक शास्त्रीय अध्ययन पृ० 37 / 7. रस-सिद्धान्त : डॉ० महर्षिकुमार चतुर्वेदी पृ० 59 / 8. साधारणीकरण : एक शास्त्रीय अध्ययन पृ० 23, 35 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211153
Book TitleDashrupak aur Natyadarpan me Ras Swarup evam Nishpatti Ek Tulanatmaka Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaji Anjum Saifi
PublisherUSA Federation of JAINA
Publication Year1987
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
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