________________ 132 काजी अजुम सैफी त्मिका अवस्था को स्वीकार करता है / अतः सम्भव है कि धनञ्जय भी भाट्टों के इसी सम्प्रदाय के समर्थक और पोषक रहे हों। यदि यही वस्तुस्थिति है तो धनञ्जय के मीमांसक होने में कोई सन्देह नहीं रह जाता है और यही सत्य भी प्रतीत होता है / डॉ० श्रीनिवास शास्त्री भी स्पष्ट रूपेण धनञ्जय के रस-सिद्धान्त को मीमांसा के आधार पर परिकल्पित स्वीकार करते हैं। _धनञ्जय के विपरीत रामचन्द्र-गुणचन्द के रस-विवेचन में किसी भी दार्शनिक पृष्ठभूमि का नितान्त अभाव दृष्टिगोचर होता है। पूर्वाग्रह के अभाव के कारण ही वह यथार्थवादी और लौकिक भावना से अनुस्यूत है तथा इसी आधार पर वह आचार्य भरत के मूल मन्तव्य के सर्वाधिक निकट भी प्रतीत होता है। पूर्ववत् यदि भरत के रस-सूत्र के व्याख्याताओं को टोकाओं पर विचार करें तो रामचन्द्र-गुणचन्द्र का विवेचन भट्ट लोल्लट की विचार धारा से पर्याप्त साम्य रखता है। ___आचार्य भरत के रस सूत्र की व्याख्या के प्रसङ्ग में भट्टलोल्लट का विचार है कि स्थायीभाव के साथ विभाव आदि के संयोग से रस-निष्पत्ति होती है / विभाव चित्तवृत्ति रूप स्थायी को उत्पत्ति मे कारणभूत हैं। रसजन्य अनुभाव इस प्रसङ्ग में विवक्षित नहीं हैं, क्योंकि वह स्वयं रस से उत्पन्न होने के कारण उसके कारण नहीं हो सकते। आलम्बन विभाव के अनुभाव ही कारण के रूप में विवक्षित हैं। व्यभिचारीभाव यद्यपि चित्तवृत्त्यात्मक होने से स्थायीभाव के सहभावी नहीं हो सकते तथापि उनका वासनात्मक रूप ही यहाँ अभीष्ट है। भरत द्वारा प्रदत्त दृष्टान्त में भी व्यञ्जन आदि के मध्य किसी भी स्थायी के सदृश वासनात्मक और किसी भी व्यभिचारी ने सदृश अद्भुत स्थिति होती है। इसलिये विभाव और अनुभाव आदि से उपचित स्थायी ही रस होता है। अपरिपुष्ट ही स्थायी भाव कहा जाता है / यह रस मुख्यतः अनुकार्य राम आदि में और अनुसन्धान बल से अनुकर्ता में होता है / कतिपय विद्वान् भट्टलोल्लट और उसके रस-विवेचन पर भी दर्शन को आरोपित करते रहे हैं। वामन झलकीकर उनको भद्रमतोपजीवी मीमांसक, आचार्य विश्वेश्वर उत्तर मीमांसक अर्थात् वेदान्ती', और डॉ० कान्तिचन्द्र पाण्डेय शैवर्ष कहते हैं। डॉ० तारकनाथ बाली उनको 1. दुःखात्यन्तमुच्छेदे सति प्रागात्मवर्तिनः / सुखस्य मनसा मुक्तिर्मुक्तिरुक्ता कुमारिलैः / / मानमेयोदय / भारतीय दर्शन, पृ० 635 से उद्धृत / 2. दश-भूमिका : डा० श्रीनिवास शास्त्री, पृ० 35-36 / 3. अत्र भट्टलोल्लट प्रभृतयस्यावदेयं व्याचख्युः-विभावादिभिः संयोगोऽर्थात् स्थायिनस्ततो रस-निष्पत्तिः / तत्र विभावश्चित्त वत्तेः स्थाप्यात्मिकायाः उत्पत्तौ कारणम / अन भावाश्च न रसजन्या तत्र विवक्षिताः / तेषां रसकारणत्वेन गणनानहत्वात् / अपितु भावनामेव येऽनुभावाः / व्यभिचारिणश्च चित्तवृत्त्यात्मकत्वाद् यद्यपि न सहभाविनः स्थायिना तथापि वासनात्मनेह तस्य विवक्षिताः / दृष्टान्तेऽपि व्यञ्जनादिमध्ये कस्यचिद् वासनात्मकता स्थापिवत् / अन्यस्योद्भुतता व्यभिचारिवत् / तेन स्थाय्येव विभावानुभावादिभिरूपचितो रसः / स्थायी भवत्वनु पचितः / स चोभयोरपि / मुख्यया वृत्त्या रामादौ अनुकार्येऽनुकर्तर्यपि चानुसन्धानबलात्- इति / अभि० भा० (ना० शा० भाग-१) पृ० 272 / 4. बालबो० ( का० प्र०-वामन झलकीकर ) पृ० 225 / 5. का० प्र० पृ० 101-102 / 6. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन एस्थेटिक्स पृ० 28 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org