Book Title: Dashrupak aur Natyadarpan me Ras Swarup evam Nishpatti Ek Tulanatmaka Vivechan Author(s): Kaji Anjum Saifi Publisher: USA Federation of JAINA View full book textPage 1
________________ दशरूपक और नाट्यदर्पण में रस-स्वरूप एवं निष्पत्ति : एक तुलनात्मक विवेचन काजी अञ्जम सैफ़ो 'मुञ्ज महीरा गोष्ठी वैदग्ध्य भाजा" के उद्घोषकर्ता आचार्य धनञ्जय का दशरूपक और 'त्रैविध वेदिनो' जैसे विशेषण के प्रयोगकर्ता जैनाचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र द्वारा सम्मिलितरूपेण विरचित नाट्यदर्पण भारतीय नाट्य परम्परा में आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र के पश्चात् अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। रस-स्वरूप एव निष्पत्ति के सम्बध में इन ग्रन्थों में प्रतिपादित विचार परम्परागत विचार-सरणि से पर्याप्त भिन्न प्रतीत होते हैं। अतः इनका अध्ययन ज्ञान और जिज्ञासा की दृष्टि से उपादेय प्रतीत होता है। दोनों ग्रन्थकारों के मन्तव्यों के पूर्ण स्पष्टीकरण और उनके प्रति न्याय की दृष्टि से यह आवश्यक तथा उचित प्रतीत होता है कि प्रथम उनके मन्तव्यों को पृथक्-पृथक कर तत्पश्चात् उनका पारस्परिक तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया जाये । दशरूपक में रस-स्वरूप एवं निष्पत्ति :-धनञ्जय दशरूपक के चतुर्थ प्रकाश में रस-विषयक विवेचन करते हैं। उनके अनुसार सामाजिक के चित्त में स्थित 'रति' आदि भाव ही 'विभाव' आदि के माध्यम से आस्वाद्य होकर शृंगार आदि रस-रूप को प्राप्त होते हैं। उनका मन्तव्य है कि रस वाक्यार्थरूप होता है। जिस प्रकार वाच्य अथवा प्रकरण आदि के द्वारा बुद्धिस्थ क्रिया ही कारकों से अन्वित होकर वाक्यार्थ होती है, उसी प्रकार 'विभाव' आदि से युक्त होकर 'स्थायी भाव' भी वाक्यार्थरूप होता है। वैयाकरणों के अनुसार वाक्य में क्रिया की प्रधानता होती है क्योंकि कारकों से युक्त क्रिया ही वाक्यार्थ का आधार होती है। श्रोता अथवा पाठक को क्रिया-ज्ञान दो प्रकार से सम्भव है-प्रथम, इसके प्रत्यक्षरूपेण शब्दशः कथन द्वारा । यथा-'गामभ्याज' आदि वाक्य में 'अभ्याज' के रूप में क्रियापद का शब्दशः कथन किया गया है। द्वितीय, श्रोता अथवा पाठक प्रस्तुत प्रकरण आदि के आधार पर क्रियापद का स्वयं अध्याहार कर लेता है । यथा-द्वारं द्वारम्' आदि वाक्यों में प्रकरण के अनुरूप 'पिधेहि' आदि उपयुक्त क्रिया का स्वयं अध्याहार कर लिया जाता है। १. आविष्कृतं मञ्जमहीरा गोष्ठी वैदग्ध्य भाजा दशरूपमेतत् । ४।८६ दश० । । २. त्रैविधवेदिनोऽप्यस्मै ततो नित्यं कृतस्पृहाः ॥ ना० द० का प्रारम्भिक श्लोकांश । ३ विभावैरनुभावैश्च सात्त्विकैय॑भिचारिभिः । आनीयमानः स्वाद्यत्वं स्थायीभावो रसः स्मृतः ॥ ४१ दश० । ४. वाच्या प्रकरणादिभ्यो बुद्धिस्था वा यथा क्रिया । वाक्यार्थः कारकैर्युक्ता स्थायीभावस्तथेतरैः ।। ४।३७ पूर्वोक्त । ५. धनिक-वृत्ति ( दश० ) पृ० ३३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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