________________ 304 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड 23. क्रमिरोग महानिम्बपत्रस्वरस का सेवन (5 / 14) / 24. कामला (पीलिया) गधे की लीद और दही मिलाकर सेवन करें (6 / 21) / 25. शिरोव्यथा आम्र के छाल को जल में पीस लेप करें (77) / 26. मुखपिडिका (जवानी की कुंसियाँ) माजूफल को चावल के धोबन में घिसकर लेप करें (7 / 20) / 27. दाँतों का हिलना अनार की छाल के चूर्ण का मंजन (7123) / 28. स्नायुकरोग (नाहरु) गोन्दी की जड़ को मनुष्य मूत्र में पीसकर लेप करें (7 / 24) / 29. // महुएँ के पत्ते बाँधे (7 / 25) / 30. " " आक के दूध का लेप करें (7 / 26) / 31. संखिया का विष चौलाई का रस व मिश्री अथवा नोंबू का रस सेवन करें (85) / 32. पादत्रण (विवाई फटना) . मोम, राल, साबुन को मक्खन में मिलाकर लेप करें अथवा तिल और बड़ का दूध पीसकर लेप करें (8 / 26) / ग्रन्थ के अन्त में 'ज्वरातिसार नाशक गुटिका' 'मुरादिशाह' द्वारा निर्मित होने का उल्लेख है : "क्षौद्रेण वा पत्ररसेन कायां वरातिसारामयनाशिनो वटा / रूपाग्निबलवीर्यवर्द्धनी 'मरादिसाहेन' विनिर्मिता वटो // 40 // " यह मुरादशाह औरंगजेब का भाई था, जो 1661 ई० में मारा गया था / शोघ्र ही यह ग्रन्थ लोकप्रिय हा गया था। इसका लाकप्रियता इस तथ्य से ज्ञात होतो है कि इस ग्रन्थ की रचना के तीन वर्ष बाद अर्थात् सं० 1729 में मेघभट्ट नामक विद्वान् ने इस पर संस्कृत-टाका लिखा था, इसका पुषिका में लिखा है : “वि० सं० 1729 वर्षे भाद्रपदमासे सिते पक्षे भट्टमेघविरचितसंस्कृतटाकाटिप्पणोसहितः सम्पूर्णः // " यह टीकाकार शैव था। इसके प्रपितामह का नाम नागरभट्ट, पितामह का नाम कृष्णभट्ट और पिता का नाम नीलकण्ठ दिया है। मेघभद्र को संस्कृत टोका के अतिरिक्त इस पर हिन्दो, राजस्थानो और गुजरातो में 'स्तबक' और 'विवेचन' लिखे गये है। वन्ध्याकल्पचौपई नागरी-प्रचारिणी सभा के खोज-विवरण पृ० 33 पर इनको इस रचना का उल्लेख है / इसके अन्तिम भाग में यह लिखा है-'कहिं कवि हस्ति हरिनों दास / ' अतः सम्भवतः यह किसी अन्य को रचना भो हो सकती है। वस्तुतः हस्तिरुचि जैनर्यात-मुनियों की परम्परा में ऐसी विभूति हैं जिनका आयुर्वेद के प्रति महान् योगदान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org