________________ आध्यामित्क साधना का विकासक्रम : गुणस्थान 526 (ख) समयादवली षट्कं, यावन्मिथ्यात्वभूतम् / नासादयति जीवोऽसं, तावत्सास्वादनो भवेत् / / -गुणस्थान कमारोह 12 33 आसादनं सम्यक्त्व विराधनम्, सह आसादनेन वर्तत इति सासादनो विनाशितसम्यग्दर्शनो ऽ प्राप्तमिथ्यात्व को दय जनित परिणामो मिथ्यात्वाभिमुखः सासादन इति भण्यते। -पखंडागम, धवलवृत्ति प्रथम खण्ड, पृ० 163 34 गुणस्थान क्रमारोह 11 35 (क) नरयतिग जाइथावरचउ, हूँ'डायवछेवठ्ठन पुमिच्छं। सोलं तो इगहि असयं, सासणि तिरिथीण दुहगतिगं / / -कर्मग्रन्थ भाग 2 गा०४ (ख) गुणस्थान क्रमारोह 0 स्वोपज्ञ वृत्ति / 36 (क) मिश्रकर्मोदयाज्जीवे, सम्यग्मिथ्यात्वमिश्रितः / यो भावोऽन्तर्मुहुर्त स्या-तन्मिश्रस्थानमुच्यते // -गुणस्थान कमारोह 13 (ख) तथा सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासौ सम्यग्मिथ्या दृष्टिः तस्य गुणस्थानं सम्यग् मिथ्यादृष्टि गुणस्थानम् / / -कर्मग्रन्थ 2, स्वोपज्ञवृत्ति पृ०७० (ग) सम्मामिच्छुदयेण य जत्ततर सब्बघादिकज्जेण / णय सम्म मिच्छंपि य सम्मिस्सो होदि परिणामो / / -गोम्मटसार, जीवकांड, गा० 21 37 जात्यन्तर समुद्भतिर्बडवारवरयोर्यथा / गुडदध्नोः समायोगे रसभेदान्तरं यथा / -गणस्थान कमारोह 14 ... 38 गुणस्थान क्रमारोह गा० 13. आयुर्बध्नापि नो जीवो मिश्रस्थो म्रियते न वा / 36 सदृष्टिर्वा कुदुष्टि भूत्वा मरण मश्नुते / गुणस्थान क्रमारोह 16 40 सो संजयं ण गिण्हदि, देसजयं बा ण बंध दे आउं / सम्म वा मिच्छं वा, पडिवज्जिय मरदि णियमेण / / -गोम्मटसार गा० 23 41 मूल शरीर को बिना छोड़े ही आत्मा के प्रदेशों का बाहर निकलना समुद्घात है। उसके सात भेद हैं-वेदना, कषाय, वैक्रयिक, मारणांतिक, तेजस, आहार और केवल / मरण से पूर्व होने वाले समुद्घात को मारणांतिक समुद्घात कहते हैं। बृहद्रव्य संग्रह गा० 10 42 (क) सम्मत्तमिच्छपरिणामेसु जहिं आउगं पुरा बद्ध। तहिं मरणं मरणंतसमुग्धादो विय ण मिस्सम्मि // -गोम्मटसार गा० 24 सम्यग्मिथ्यात्वयोमध्ये, ह्मायुर्येनाजितं पुरा। म्रियते तेन मावेन, गतिं याति तदाश्रिताम् / / -गुणस्थान क्रमारोह 17 43 (क) कर्मग्रन्थ भाग 2, गा०४-५-देवचन्द्र रचित / (ख) गुणस्थान क्रमारोह 17 44 अयमस्यामवस्थायां बोधिसत्वोऽभिधीयते। . अन्यस्तल्लक्षणं यस्मात् सर्वमस्योपपद्यते / -योग बिन्दु 270 45 बोधो ज्ञाने सत्वं अभिप्रायोऽस्येति बोधिसत्व : // -बोषिपंजिका 421, उद्धृत बोद्ध-दर्शन, पृ० 117 46 यत्सम्यग्दर्शनं बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः / सत्वोऽस्तु बोधिसत्व स्तद्धन्तषेऽन्वर्थतोऽपि हि / / वरबोधि समेतो वा तीर्थकृधी यो भविष्यति / तथा भव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्वः सतां मतः / / -योग बिन्दु 273-274 जो अविरओऽविसंघे, भत्ति तित्युण्णई सया कुणइ / अविरय सम्मद्दिठ्ठी, प्रभावगो सावगो सोवि // -गुणस्थान क्रमारोह० वृत्ति गा० 23 की वृत्ति / कर्मग्रन्थ भाग 2, गा०६ 46 असंजद सम्माइठ्ठी -षट्खण्डागम 12212 50 णो इन्दियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि / जो सद्दहदि जिणुत्तं, सम्माइट्टी अविरदो सो / / -गोम्मटसार गा०२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org