________________
च पुनः मित्रेण सुहृदा तुझ्यं समानं गणयेत् मन्येत लुई पुष्टमपि श्रत्यन्तापकारिणमपि परमोपकारिहमिव गक्षयेथाः । न हि दुष्टेष्वनिष्टं कुर्याः । येन साम्यावस्थालम्बनेन हे जीव तव जयं मोक्षावाधिलक्षणं स्यादिति तात्पर्यार्थः ॥
अत्रायें कीर्त्तिचन्द्रसमग्र विजयनात्रोः सन्धिबन्धेन कथा प्रतन्यते
इह जरवित्ति पसिद्ध, चंपा इय नयरी धएसमिद्ध। जिहिं धम्मकद्धि जणु श्रहियबुद्ध, परदवद्दपि पंगुव सुद्धा १ ॥ सुपयंमदंभ जिल्द सिरेसु,न ड् दीस पुण नायरनरेसु । जिहिं तिक्लोह सुहरुद् करे, श्रमखिणपंक गिम्दह सरेसु ॥२॥ तत्यत्थि नरादिव कित्तिचंद, जसु जसिहिं विशिक्रिय नभइ चंद । न डु पाबड़ कत्थ वि जाव ठाए, ता जरुरुइ सेवइ सुन्नठाण ॥३॥ जुबराय समर विजयानिहाए, बदु तास सहोयर दोसवाए । परिपाल दोन्नि वि निययरत, मएवंद्विय सादर सयखका ॥ ४५ ॥ ॥ जिलि जग्गग्गसूरप्पयात्र, विणिवारियसवरिप्पनाव । ऊत्रकंतकं तिविद्धुविकराल, करवाल करंतल करि विसाख ॥ ५ ॥ गरिवि तक किरि दुरंत दुक्कालमहारिचचखमहंत | गणग्गजवणि निम्मियनिवास, पूरंतर तिहृयखोयास ॥ ६ ॥ क सिएन्जपरुल उब्जगवंद, अह पाठसकालमद्दानरिंद । सासुरमोरगएवं दिविंद, जयजयरवपच मंदनंद ॥ ३ ॥ इत्थंतरि कोइलरसाख, श्रारूढ गवरिकहिं भूमिपाल । चरित्रदुखकझोलमाल, पिस्कर नश्पूर महाविसाल ॥ ८ ॥ उत्तरिय भूमिबलह पुरंत, तिहिं श्रागय नियपरिवारजुत्त । श्ररुदिय नाविपत्रिसड़ खरोष, नश्षरमज्जि कोचगरसे ॥ एला जखकेलि करइ जा परिययेण सह जुबइ ता चबरिं घरोए । बुद्धे पति नपवाह, अइतिचवेगि पबहश् श्रगाद् ॥ १० ॥ उम्मणि जंति यह बेभियाच, जद चकम नरवइचेकियाच । न तु कन्नधार वावार कोश, विप्फुरइ खोइ इसकोस होइ ॥ १११ ॥
32